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पुरुषार्थसिधुपाय दिग्नतादि धारण करते हैं व क्रमशः उच्चपद या सकल संयम या महाव्रतको प्राप्तकर मुनि बनते हैं और आगे बढ़ने-बढ़ते यथाख्यात चारित्रके धारी सर्वज्ञ केवी हो जाते हैं किम्बहुना । आत्माकी शक्ति अचिन्त्य है एवं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानको महिमा अपार है यह दिव्रतादिका फल है अतएव अवश्य धारण करना चाहिये, यही मोक्षका मार्ग है जो निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो । सरहका होता है पेश्तर यह कहा जा चुका है ॥ १४० ।।
तीसरा गुणवत, जनयंदवत्याग है। उसके पांच भेद हैं। उनमेंसे पहिले अपध्यानका त्याग करना बताते हैं।
पापजियपराजयसंगरपरदारगमनचौर्यायाः । न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥१४१।।
पद्य
चिना प्रयोजन कार्य जगतमें करना अनस्थ कहलाते । जनका ५ अवश्य ही मिलता याग इसीसे करवाते ।। पापबृद्धिके करनेवाले जीत हार विकलप करना । सेवन रस्त्री अरु खोरी श्रादि करन में जित धरना ।। अपध्यान है नाम इसीका प्रथम भेद इसको जानो।
इसका स्वाग करेसे मित्रो! अगुवतकी रक्षा मानो ॥१४॥ अन्धय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [पापविजयपराजयसंगरपरदारगमनचौयांग्राः कदाचा भापि न चिस्याः ] निष्प्रयोजन, जिनसे अपनेको कुछ मिलना-जुलना न हो ऐसे पापवर्द्धक खोटे विचारोंका करना, या खोटा चिन्तवन करना, अनर्थदंड कहलाता है। जैसे कि, उसकी जीत हो जाय, उसको हार हो जाय, उनकी लड़ाई हो जाय, उसकी स्त्री मेरी स्त्री बन जाय या मुझे वह मिल जाय, उसको मैं चोरी कर लें या उसकी चोरी हो जाय, इत्यादि विकल्प या आर्स रौद्र परिणाम करना, खुशी मनाना अनर्थदंड ( व्यर्थका अपराध ) कहलाता है-वह कभी नहीं करना चाहिये अर्थात् उसका बुद्धिमानोंको त्याग ही कर देना चाहिये । पस्मात् केवलं पापफलं मर्याप्त ] क्योंकि उससे सिर्फ पापका ही बंध होता है-बही मिलता है और उसका फल दुःख ही परभवमें व इस भवमें मिलता है, किन्तु चितवन की हुई चीजोंमेंसे कुछ नहीं मिलता, यह तात्पर्य है ।। १४१॥
भावार्थ-अपध्यान ( खोटा विचार व चितवन ) का फल या नतीजा खोटा हो ( हानिकारक ) होता है-कभी अच्छा नहीं हो सकता, अतएव वह त्याज्य ही है। उससे भावहिंसा होतो है-वे विकारी परिणाम हैं ( विभाव भाव हैं, स्वभाव भावके विघातक हैं ) तब उस जीवके 'अहिंसा आदि अणुव्रत' नहीं पल सकते, यह निश्चित है। इसलिये अणुवतीको बिना प्रयोजनके अर्थात् बप्रयोजनीभूत कार्य करना बन्द ही कर देना चाहिये तथा प्रयोजनमत कार्योंमेंसे भी।