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सप्तशीलप्रकरण
अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [निष्कारणे भूखननवृक्षमोटनशास्वलदलनान्नुहोचना दीनि ] निष्प्रयोजन ( अप्रयोजनभूत बेमतलब ) पृथ्वी या जमीनका खोदना, वृक्षोंका काटना, हरा घास या वनस्पतिको काटना उखाइमा, पानी उड़ेलना (सींचमा } {स दलफल सुमोच्चयामपि ] और पत्र फलफूल आदिका संचय करना भी [ न कुर्यात ] नहीं करना चाहिये अर्थात् वर्जनीय है, कारण कि वह अनर्थदंड है अत: उसका त्याग करना व्रतीको प्रतरक्षाके लिये अनिवार्य है ।।१४३।।
भावार्थ-निष्प्रयोजन । जरूरतसे ज्यादह या जरूरत के विना) कार्य करना 'अनर्थदंड' कहलाता है। ऐसी स्थितिमें गृहस्थ श्रावक अपने पद और आवश्यकताके अनुसार पश्वो आदि पांच स्थावरोंकी हिंसा कर सकता है, कारण कि उसका सम्बन्ध उनके साथ रहता है । आजीविका के लिये खेती करता है...बाग बगीचा लगाता है, मवेशी रखता है, घास-पत्नी संग्रह करता है फलफूल उपयोग में लाता है क्योंकि उनके बिना उसका कार्य नहीं चल सकता । अत: वे गृहस्थाश्रममें अनिवार्य हैं । म हैं . उन
क सोकी उसकी आज्ञा । विधि है। किन्तु सबको सीमा निर्धारित है, अर्थात् जितनी जरूरत हो जितमेसे प्रयोजन हो) उतना ही वह वत्तविमें लावे-उससे अधिक उपयोग में न लावे, यह कैद है। अन्यथा वहो कार्य अमर्थदंडमें शामिल हो जाता है जो वर्जनीय है। यही एफदेश व्रतका अर्थ ( मायना ) है, ऐसा करनेसे ही उसकी रक्षा हो सकती है अस्तु ।।१४३॥ आचार्य चौथा भेद ( ४ ) हिंसादान नामक अनर्थदंडका त्याग करना बताते हैं ।
असिधेनुविषहुताशनलांगलकरवालकार्मुकादीनाम् । वितरणमुयकरणानां हिंसायाः परिहरेत् यत्नात् ॥१४४॥
पद्य
हिसाझे उपकरण न देना छुरी कटारी आदिक को।
उनके वेनेसे लगती है, हिंसा अनरथत्यागा को ।। १. उन्नं च १ . भूषयः पवनानीनां तृणादीनां च हिसतम् ।
यावत् प्रयोजनं स्यस्य, वावस्कुर्यादयं तु तस।। पशस्तिलककाव्य ।। अश्र---पृथ्वी जल वाय अग्नि बन्दस्पति आदिसे जितना अपना प्रयोजन हो उतनी हिंसा गृहस्थ कर
सकता है, वह अनुबिल नहीं है किन्तु उससे अधिक (अप्रयोजनभूत ) करमा अनुचित व
वर्जनीय है इति 1 २. वितरणका अर्थ देना अथवा स्वयं प्रयोग करना समझना चाहिये। ३. हिंसाके उपकरण ( साबन ) जिसने भी हों उन सबका वितरण करना या रखना निषिद्ध है क्योंकि जिनका नाम लिखा गया है उतने ही साधन नहीं है। कुत्ता, बिल्ली आदि हिंसक जानवरोका रखना भी मना है।
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