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पुरुषार्थसिन्धुपाय कि [आभागकर गैसला निकाय ! सर आगम ( आम्नाय ) अनुमान ( युक्ति ) प्रत्यक्ष ( योग-स्वानुभव ) इन तीन प्रमाणोंके जरिये सम्पज्ञानका निर्णय ( निश्चय ) करके, [ यस्लेम मित्य समुपास्यम् । बड़े प्रयत्न या पुरुषार्थ के साथ उसको हमेशा अपनाचे अर्थात् उसकी आराधना या सेवा अवश्य करें यह जरूरी है क्योंकि उसके बिना आत्मकल्याण | साक्ष्य ) की सिद्धि नहीं हो सकती ॥ ३१॥
भावार्थ-विश्वके सम्पूर्ण पदार्थोंमें ज्ञानका दर्जा और महत्त्व सबसे ऊंचा है कारण कि उसके बिना कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती। कौन पदार्थ किस प्रकारका है, किस कामका है ? इत्यादि बातोंका पता लग हो नहीं सकता। तब अन्धकार में रहना जैसा लोक में रहना सिद्ध होता है। अतएव ज्ञान तो उत्कृष्ट है हो किन्तु उसमें भी 'सम्यग्ज्ञान' सर्वोत्कृष्ट वस्तु है, जो अभीष्ट ( साध्य सिद्धि करता है क्योंकि उसके सिवाय अन्य किसी भी पदार्थ में यह शक्ति ( सामर्थ्य ) नहीं है कि वह अभीष्ट सिद्धि कर सके इत्यादि । अतएव उस सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करना अनिवार्य है, परन्तु उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उसके उत्तर में आचार्य महाराज कहते हैं कि 'युक्ति' अर्थान् प्रमाण व नयसे अथवा अनुमानसे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है अथवा 'आम्लाय' से अर्थात् पूर्व परम्परासे ( गुरु आदिके उपदेश द्वारा ) अथवा 'योगोंसे' अर्थात् प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगोंके द्वारा अथवा स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा उत्पन्न होता है इत्यादि अनेक साधन हैं, जिनसे सम्परज्ञान उत्पन्न होता है । युक्ति आदिका स्वरूप नीचे टिप्पणी में देखो'। ऐसा समझना चाहिये।
नोट-इस श्लोकमें मुख्यतया सम्बग्ज्ञानके उत्पादक निमित्त कारणोंका उल्लेख किया गया है भेदोंका उल्लेख नहीं है तथापि थोड़ा प्रकाश डाल देना संगत प्रतीत होता है, उससे आगे लाभ ही होगा, अतएव निम्न प्रकार भेद समझना चाहिये । सम्यग्ज्ञानका लक्षण भी आगे श्लोक नं० ३५ में कहा जायमा सो जानना ।
सम्यग्ज्ञानके २ भेद (१) प्रत्यक्ष भेद, (२) परोक्ष भेद, अथवा (१) निश्चयसम्यग्ज्ञान (२) व्यवहार सम्यग्ज्ञान ।
प्रत्यक्षज्ञानके २ भेद (१) सकल या सर्वप्रत्यक्ष, जैसे केवजशान । - (१) विकल या एकदेश प्रत्यक्ष, जैसे
१, भयप्रमाणाभ्यां निश्चयः 'युक्तिः । तस्बोललेखि जान 'स्मृतिः' 1 इन्द्रियग्राहिवर्तमानकालाछिनपदार्थ
झान 'मनुभवः' । एतदुभयं संकलनात्मक ज्ञानं 'प्रत्यभिज्ञानं'। ध्याप्तिशानं 'सर्कः' । व्याप्यव्यापक
सम्बन्धी हि 'व्यामिः। २. जो सिर्फ आत्माकी सहायतासे उत्पन्न हो, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। जो इन्द्रिय व मनकी सहायता से
उत्पन्न हो, उसको परोक्ष कहते हैं। ३. जिसमें मनकी अकेलेकी कुछ सहायता हो व कुछ अकेले आत्माकी सहायता हो, उसको एकदेश (आशिक)
प्रत्यक्ष कहते हैं। जिसमें अकेले आत्माको सहायता हो, वह सर्थदेश ( सकल ) प्रत्यक्ष कहलाता है।