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सम्पशान
१११ सूझना व यथासम्भव उपाय कर सकना, यह शक्ति जिसके पाई जाती है उसे कर्मचेतना कहते हैं। ऐसे हीन्द्रियादि जीव होते हैं।
(३) ज्ञानचेतना-अर्थात अपनी आत्माका ज्ञान हाना अथवा स्बपरका भेद विज्ञानका होना ज्ञानचेतना कहलाती है। यह संजी पवेन्द्री जीवोंके ही होती है अन्यके नहीं होती यह नियम है । यहाँपर ज्ञानका अर्थ 'आत्मा' होता है ऐसा पंचाध्यायीमें कहा गया है।
नोट-(१) संक्षेपमें दो भेद होते हैं ( १ ) शुद्ध चेतना ( २ ) अशुद्ध चेतना । कर्मफल व कर्मचेतना अशुद्धचेतना कहलाती है और ज्ञानचेतना शुद्धचेतना कहलाती है क्योंकि वह पदार्थक शुद्ध स्वरूपको बतलाती है।
२) ज्ञानगुण सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है अतएव उसकी साधना आराधना करना प्रत्येक समझदार विवेकी मनुष्यका कर्तव्य है, उसके विना उद्धार ( कल्याण) नहीं हो सकता यह नियम है। उसके लिए ज्ञानी पुरुष पत्राचार आदि पालते हैं। उनमेसे ज्ञानाचारके आठ अङ्ग होते हैं जिनके पालनेसे ज्ञानगुणमें वृद्धि होती है अर्थात् वह विशेषरूपसे प्रकट होता है ऐसा थ्यवहारनयसे कहा गया है ! यथा
१-शब्दाचार, २-अर्थाचार, ३--उभयाचार, ४.कालाचार, ५-चिनयाचार, ६-उपधानाचार, ७-बहुमानाचार, ८-अनिवाचार, इनका यहाँ नाम मात्र लिखा जाता है आगे श्लोक नं० ३६ में आचार्य स्वयं कहनेवाले हैं किम्बहुना।
सम्यग्ज्ञानीकी विचारधारा सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी विचार करता है कि अहो ! जबतक यह जीव शुभोपयोगकी भूमिका में रहता है तबतक यह वैसा ( शभ) व्यापार ( क्रियाएँ । भी किया करता है अर्थात शभोपयोगके उदय (आवेश ) कालमें पञ्चाचारोंका पालना अर्थात् ज्ञानकी कपरी ( बाह्य ) विनय करना, पञ्चमहादतोंका पालना, ( धारण करना ) पांच समितियोंका पालना, तीन गुप्तियोंका पालना बारह लोंका पालना.बारह तपोंका धारण करना. वाईस परिषदोंको सहना, आदि सभी प्रशस्त कार्य उसके हुआ करते हैं, जो शुभरागके उदयका फल हैं अर्थात् औदायिक भावोंकी महिमा है ऐसा समझना चाहिये। धारण या पालन करनेकी प्रवृत्ति सब शुभभावोंको सूत्रक है--शुद्ध भावोंकी सूचक नहीं है किन्तु लक्ष्य उसका यही रहता है कि जबतक शुद्धोपयोगको प्राप्ति नहीं होती तबतक वीचके लिए यह आलम्बन है किन्तु यह हेय अवश्य है । शुद्धभावोंको सूचक निवृत्ति है, जो छोड़ना रूप या त्याग करना रूप है यह न्याय है अस्तु !
अब शुद्धोपयोगकी भूमिकामें जीव रहता है तब उसके सभी व्यापार बन्द हो जाते हैं अर्थात वह शुभ या अशुभ सभी व्यापारोंसे निवृत्त हो जाता है, सिर्फ वह शुद्ध स्वरूपमें ही लीनसा करता है. बाहिरी त्याग-ग्रहणको प्रक्रिया सब बन्द हो जाती है। परन्त यह सब कार्य गुण स्थानोंके क्रमानुसार होता है। वैसे तो सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानीके चतुर्थ गुप्मस्थानमें ही ज्ञान १. अधारमा ज्ञानशब्देन पलोक नं० १९६, उत्तरार्ध पञ्याध्यायो।
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