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IRोशात जाता है। ऐसी स्थिति में आचार्य कहते हैं कि दृढश्रद्धानी प्रतिज्ञाघारीको कभी भी अपनी दृढ़ श्रद्धाको या प्रतिज्ञाको नहीं बदलना चाहिये चाहे कैसा भी परिणमन देखने भोगने व सुनने में क्यों न आवे, क्योंकि वस्तुका परिणमन संयोगरूप व वियोगरूप हमेशा हर जीवके होता रहता है, चाहे वह जीव सम्यग्दष्टि हो या मिथ्यादष्टि हो, हिंसक हो या अहिंसक हो, पापी मूर्ख अज्ञानी हो, या धर्मात्मा ( पुण्णी ) विद्यानु ज्ञानी हो, धनी हो या निर्धनी हो, रोगी कुरूप हो या निरोगी सुरूप हो, उच्च हो या नीच हो। वस्तुके परिणमनमें कोई पक्षपात या भेद नहीं माना जाता, न कर सकता है, अतः वस्तुके परिणमन पर दृष्टि देने वाला व उसको स्वतंत्र माननेवाला सम्यग्दष्ट्रि दहशद्वालु होता है। इसीलिये उसकी श्रद्धा अटल { अपरिवर्तनीय ) रहती है। वह अहिंसाधर्मको ही सवेच्चि आत्महितकारी चिन्तामणि समझता है, धनादिक परविभूति (परिग्रह से बह विरक्त रहता है, उसको वह हृदयसे आकांक्षा नहीं करता, उसको वह उपादेय नहीं मानता न उसे जरूरत से ज्यादह महत्व देता है, उसको वह बीमारीकी दवाईवत् सेवन करता है । वह खूब जानता है कि वर्तमानमें हिंसक दुष्ट कषायी मिश्यादष्टि नीच जीवोंके यदि विभूति आदि बहुत सामग्रो पाई जाती है तो उसका कारण पूर्वका किया हुआ पुण्यका बंध है, उसके उदयसे यह सब ठाठबाट है किन्तु वर्तमान में हिंसा करने या हिंसक व्यापार, चोर व्यापार आदि करनेका यह फल ( ठाटवाट) नहीं है, इसका ( कुकर्मका ) फल अलग भोगना पड़ेगा ( दरिद्रता आदि ), जब वह पापका बंध उदयमें आवेगा । अतएव श्रद्धाको क्यों बिगाड़ना? नहीं विगाडना चाहिये । यदि श्रद्धा बिगड़ी तो सब बिगड़ गया (यदि हमारे स्वयं या अन्य अहिंसाधर्मीक दरिद्रता आदि है तो वह भो पूर्वकृत पापकर्मका फल है सो जब वह खतम हो जायगा (पापकर्म नष्ट हो जायगा ) तब हमें भो साताको सामग्री स्वत: प्राप्त हो जायगो, अतः क्यों घबड़ाना ? वह एक दिन अवश्य-अवश्य होगा। सच्चे झूठेकी परीक्षा वक्तपर ही होती है अतः श्रद्धा दृढ़ रखना चाहिये किम्बहुना । ऐसा उपदेश आचार्य महाराज देते हैं । अरे, यह अहिंसाधर्मरत्न नित्य मोक्षसुखको देनेवाला है, उसके सामने यह सांसारिक विभूति जन्य सुख तुच्छ और अनित्य है ( बन्धका कारण है ) इससे मोक्षसुख हरगिज नहीं मिल सकता इत्यादि।
इसके सिवाय विवेकी अहिंसाधर्मके पालने वालोंको यह भी तो सोचना चाहिये कि सांसारिक सुखसमृद्धिका मूलहेतु वह दयारूप धर्म हो तो है...जिसे व्यवहारसे अहिंसाधर्म कहते हैं । उससे पुण्यका बंध होता है और उसके उदय आने पर देवेन्द्र-चक्रवर्ती, घनी कुटुम्बी आदि विभूति बाला वह जीव होता है अतः कभी श्रद्धाको नहीं बिगाड़ना चाहिये । अहिंसाधर्म एक रसायन या सर्व सिद्धिदायक ( कल्पवृक्ष ) परमौषधि है। उससे मनोवांछित संसारसुख और अन्तमें नित्य मोक्षसुख भी मिलता है किम्बहुना । निश्चयनयसे अहिंसाधर्म, बीतरागतारूप है--पूर्ण रागादिसे रहित है। { निबंध है ) और व्यवहारमयसे अहिंसाधर्म, शुभरागरूप या धर्मानुरागरूप है ( पुण्यबंध सहित है ) यह खास भेद समझना चाहिये । किन्तु अमानो मिथ्यादष्टि निश्चय व्यवहारका शान न होनेसे एक तरह ( एकान्तरूप) का ही विश्वास ( श्रद्धान) कर बैठते हैं, जिससे वे उगाए जाते हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि एक आँखसे सबको देखते हैं। कोएको पुतलीको तरह क्षण २ में उनके विचार बदलते रहते हैं। स्थिर एकत्रित नहीं रहते। उनको हमेशा संशय बना रहता है अतएव वे थोडे ।