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सध्यानत
भावार्थ----लोकाचार (लोकव्यवहार में असत्य या झठ बोलना पाप गमाह अपराध ) समझा जाता है और उनका दंड भी दिया जाता है, यह लौकिक न्याय है कारण कि उससे दूसरोंकर नुकसान होता है, अपराव बढ़ते हैं ब्यवस्था बिगड़ती है इत्यादि । अतएव लोकव्यवस्था (मर्यादा) कायम रखने के लिये दंडव्यवस्थाका होना नितान्त आवश्यक है। परन्त जैन शासन के अनुसार ऐसा न्याय है कि 'जो असत्य भाषण (कथन) प्रमादपक विवेक विना असावधानीसे किया जाय अथवा स्वेच्छा या स्वार्थवश तीनकषायकी हालत में निरंकावनिर्भयतासे किया जाय, असलमें (निश्चयसे ) बही असत्य या झूठ पायमें शामिल है। फलतः जो असत्य कथन, बिना प्रमादके अर्थात् तीव्रकषामरूप भावके बिना हो जाय, ( किया जाय ) उस कथनको 'असत्य-पापरूप' नहीं माना जा सकता, क्योंकि उससे ( बिना इरादा या कषायके ) स्थिति व अनुभागरूप बंध नहीं होता, यह बचत रहती है। अतएव उसको बंध या सजा में शामिल नहीं किया जा सकता, यह खुलासा है, इसको समझना चाहिये । सारांश-वचन चाहे सत्य निकले या असत्य निकले, उससे
आत्माके प्रदेशों में कंपन होनेसे प्रकृति और प्रदेश बंध तो होगा ही, परन्तु वह प्रमादरूप कषायके बिना कुछ हानि नहीं कर सकता ( स्थिति अनुभागबंध नहीं कर सकता ) यह तात्पर्य है। अत: उसका होना न होना बराबर है, किम्बहुना।
ध्वन्यर्थ-इसका यह है कि बिना इच्छा ( कषाय ) और मनकी स्वीकारताके ( मनोयोग बिना ) यदि कदाचित् दवाउरेमें { परवशता या बलात्कारसे ) असत्य या झूठ बोलना भी पड़े सो उसको असत्यका पाप नहीं लगेगा, न वह असत्यभाषी कहलायगा, कारणकि पास और पुण्य भावों ( रुचि )से लगता है सिर्फ क्रिया मात्र होनेसे नहीं लगता। हाँ, निमित्त मिलने के समय यदि भाव बदल जाय ( रुचि उत्पन्न हो जाय मन स्वीकार कर लेवे ) तो अवश्य ही बंध होमा टल नहीं सकेमा, क्योंकि वह खुदकी कृति एवं जिम्मेपर हुआ है उसका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। इसीलिये सम्यग्दृष्टिजीव जबतक मनोयोगसे कोई कार्य नहीं करता ( अरुचिपूर्वक करता है तबतक उसको उस क्रियाका फल (बंध ) नहीं लगता, यह नियम है। मनको चंचलता या विकार बिना कषाय. भावके नहीं होता, ऐसा कहा गया है--
'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' अर्थात् कषाय सहित मन या उपयोग ही मनुष्यों अथवा सभी जीवों के बंध व मोक्षका निमित्त कारण माना जाता है । मोक्षका अर्थ छूटना या निर्जरा होना है इत्यादि । अतएव मनको साधनेका पुरुषार्थ हमेशा करना चाहिये । अशुद्ध या संयोगी अवस्था मन अशुद्ध कार्य । पाँच पाप ) ही किया करता है। पांच पाप ये सब जीवके-गुण, स्वभाव या धर्म नहीं हैं, किन्तु दोष, विभाव या अधर्म हैं, जी हेय हैं, ऐसा समझना । व्यवहार में असत्यके चार भेदोका कथन या स्पष्टीकरण आगे किया जानेवाला है, किम्बहुना ।। ९१ ॥
विशेषार्थ-देशवती या अणुव्रतीको असत्यका त्याग तो करना ही चाहिये, वह उसका अनिवार्य कर्तव्य है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि उसको कौनसे असत्यका त्याग करना चाहिये, कारणकि .