________________
अशाणुनस
२६७
चरिम मोह के तीय उदय से निज ग्रीन हिता सकते । उनका भी सव्य ग्रही है अन्य सभी को सदेते।। मैथुन स्याग दो तरह होना मिज स्त्री पर स्त्री का।
पर स्त्री के त्याग करे से एकदेश मत पलने का 100 अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ये मोहात् निजकलमा परिहत्तुं न हि शक्नुवन्ति ] जो श्रावक चारित्रमोहके ( देदके ) विशेष उदय से सिर्फ अपनी स्त्रोका त्याग नहीं कर सकते अर्थात् उसके सेवन में हो सन्तुष्ट रहते हैं। तैपि निःशेषशेषयोपिन्निवेषणं न कार्यम् ] उनका भी कर्तव्य यही है ( मुख्य कर्तब्य है । कि वे अन्य सम्पूर्ण स्त्रीसमाजका ( चेतन-अचेतन या देवी मानुषी तिरश्ची का ) त्याग कर देखें, जिससे वे एकदेश ब्रह्मचारो अर्थात् कुशीलत्यागी बन सकते हैं यह तात्पर्य है ।।११०॥
भावार्थ--ब्रह्मचर्य का अनुपम व अद्वितीय महत्त्व है, अतएव उसका पूर्ण पालन करना तो मुमुक्षुका कर्तव्य है ही किन्तु जब वह पूर्ण पालन करने में असमर्थ हो अर्थात् चरिश्रमोहके उदयसे सब स्त्रियों का त्याग न कर सके तब अपवादरूपसे वह स्वशारमन्तोषी ( निज स्त्री मात्रमें सन्तुष्टो होकर बाकी सभी स्त्रीसमुदायका त्याग कर देवे, जिससे अणुव्रती या एकदेश ब्रह्मचर्य व्रतधारी तो बन जाय ! यही आगोमा मतका साहात : क्रि भी हिमोंका संसर्ग नहीं हो सकता ( असंभव है। तब व्यर्थ में उनका त्याग क्यों नहीं कर देता....क्यों मुहमिल { अत्यागीशिथिलाचारी ) बना रहता? यह शिक्षा है। निष्प्रयोजन चीजको पासमें रखने से क्या लाभ है ? कुछ नहीं, बुद्धिमानों विवेकियों को उनका त्याग कर ही देना चाहिये ॥११॥
ब्रत प्रतिमा ( दूसरी कक्षा) धारी श्रावक ( नैष्ठिक श्रावक अगुवती ) का कर्तव्य है कि वह १२ प्रतोंका पालन करे। उन्हीं बारहमें ४ चौथे नम्बरका कुशील त्याग है ( अबहाल्याग) उसके दो भेद या प्रकार हैं ( १ ) स्वदारसन्तोष (२) परदारत्याग । यद्यपि स्वदारमन्तोषी { स्वस्त्रीसेवी ) के पूर्ण कुशील ( विभाव ) का त्याग नहीं होता सथापि परस्त्रीका त्याग कर देनेसे कमसे-कम एकादेश कुशीलका त्याग हो जाता है अत: वह पूर्ण कुशीलसेवा नहीं माना जा सकता, अपितु वह एकदेश कुशीलसेवो कहा जा सकता है। फलत: वह थोड़ा पापवन्ध करनेसे बच जाता है यह लाभ होता है।
नोट--स्त्रीमात्रका त्यागी ( स्वस्त्री-परस्त्री-बजारूस्त्रीका त्यागी ) सम्मम् प्रतिमाधारी हो वर्णी या ब्रह्मचारी कहला सकता है। परन्तु वह भी अपूर्ण है जस्तक कि त्रियोगसे व कृतकारित अनुमोदनासे त्याग नहीं कर पाता। हाँ, श्रावकके आचारके अनुसार वह खाली दो भंगीसे अर्थात् कृत व कारित से त्याग करभेपर अणुवती मध्यम ब्रह्मचारी कहला सकता है। इसका कारण केवल पर द्रव्यका अर्थात् बाह्यबस्तुका ( स्त्रीरूपका ) त्याग है । उसीकी लोकमें इज्जत व प्रतिष्ठा हैअर्थात् लोकमें बाह्य चीजोंका त्याग करने वालेको हो त्यागी या प्रती कहते हैं-यही तो एक देश
eade
R