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पुरुषार्थसिद्धपा
है । कषाय या अन्तरंग परिग्रहके नष्ट हो जानेपर सब व्यर्थं सिद्ध होता है। जैसे कि मर जानेपर स्नान पूजन सब बेकार है । ऐसी स्थितिमें बाह्य परिग्रहका त्याग करना अनिवार्य है, जिससे अपना (हिंसा या त्रुटि) उत्पन्न न हो अर्थात् बाह्यपरिग्रहधारी, असंयमी ( हिंसक ) कहलाता है एवं उसको मोक्ष नहीं होता- निष्परिग्रही ( दोनों परिग्रह रहित अहिसक असंयोगी या वियोगी) ही मोक्ष जाता है, यह नियम व तात्पर्य है । फलतः बाह्यपरिग्रहका भी त्यागकर देना चाहिये, व्यर्थं ही क्यों असंयमी या परिग्रही संयोगी बना जाय । वह लांछन ( कलंक ) है । अस्तु - सिद्धान्ततः एकवस्तु जब स्वभावसे अन्य वस्तुसे भिन्न है अर्थात् अपने ही नियंत्रित होकर सदैव रहती है तब उसके साथ संयोगरूपसे भी दूसरी वस्तुओंका रहना या उन्हें साथमें रखना विरुद्ध है, न्यायके प्रतिकूल है । अतएव एकस्व विभक्तरूप आत्माका रहना ही निष्कलंक और उत्तम है, कारण कि जबतक बिना कषाय ( अन्तरंग परिग्रह ) के भी बाह्य शरीरादि परिग्रह रहेगा तबतक मोक्ष कदापि न होगा यह नियम है । अतएव बुद्धिपूर्वक उसका त्याग करना हो उचित है, इत्यादि ॥ १२७
आगे आचार्य कहते हैं कि परिग्रह तो सभी त्यागने योग्य है, किन्तु जो जीव ( गृहस्थ ) सभी का इकदम त्याग नहीं कर सकते उनका कर्तव्य है कि थोड़ा-थोड़ा उसे कमती करें।
योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सोऽपि तनूकरणीयः निवृत्तिरूप
यतस्तम् ||१२८||
पा
जो समर्थ नहिं पूर्ण त्यागको धनधान्यादि परिग्रह को । उसे चाहिये कमी करना - शुद्ध स्वरूप विचारकको 11 सभी वस्तुएँ परसे मिरवृत्त, कोई किसी में मित नहीं। क्यों फिर मेल करत हो परसे, तुम निजरूप विश्वार सही ॥ ११८ ॥
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ बोsपि धनधान्यमनुष्यवास्तुविश्वादि व्यक्तुं न शक्यः ] जो भी श्रावक ( परिग्रहो ) ऐसा हो कि वह धन धान्य, मनुष्य ( दासीदास ), मकान, खेत, रुपया, चाँदीसोना आदि बाह्य परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं कर सकता ( असमर्थ है ) [ सोऽपि तनूकरणीय: 1 उसका भी कर्त्तव्य है कि बाह्य परिग्रहको कम करे । अर्थात् अप्रयोजनभूत परिग्रहका तो पूर्ण त्याग करे ही तथा प्रयोजनभूतको भी थोड़ा-थोड़ा घटाये [ यतः तवं निवृत्तिरूपं ] कारण कि
१. परम यथाख्यात चारित्र न होनेसे उसका भाव या हिंसा होगी व वियोग ( पृथक्त ) न होगा । २. कमती करना-बटाना ।
३. परसे भिन्न स्वतंत्र व शुद्ध ।
४. वस्तुस्वरूप या आत्मस्वरूप सबसे भिन्न एकरूप या चारित्ररूप ।