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परिपरिमाणात
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reer स्वरूप निवृतिरूप है अर्थात् परसे सभी वस्तुए ( आत्मादि ) तादात्म्यरूपसे पृथक् रहती हैं, यह नियम है । अतएव परिग्रहसे बारमा क्यों लिप्स करना विवेक अर्थात् सम्यग्दर्शनका तकाजा है, स्मरण दिलानारूप कार्य है ॥
नहीं करवाये। यह
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भावार्थ - इस इलोक द्वारा आचार्यने पदके अनुसार परिग्रहका त्याग करना बताया है । यद्यपि परिग्रह सभो त्याज्य है, वह एक साथ नहीं त्यागा जा सकता, किन्तु पद और योग्यता (शक्ति) के अनुसार त्यागा जाता है श्रावक ( गृहस्थ ) उस आश्रम में रहते हुए सबका त्यागी नहीं बन सकता, क्योंकि उसे गृहस्थीके कार्य करना पड़ते हैं। वह धान्यादि संग्रह भी करता है और दानादि कार्य ( खर्च ) भी करता है। ऐसी स्थिति में वह सर्वथा परिग्रहका त्यागी नहीं हो सकता, कुछ त्यागी हो सकता है, यह नियम है । तथापि उसके लिये भी विधि ( कर्त्तव्य ) बतलाई गई है कि वह प्रयोजनभूत परिग्रहका परिमाण ( सोमा ) करके rent छोड़ दे तथा अप्रयोजनभूतका पूर्ण स्याग कर देवे, जिससे मोक्षमार्गका साधक देशाती बना रहे । वस्तुस्वभावका विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि परिग्रह परपदार्थ है, वह आत्माका नहीं है, अतएव उसका सम्बन्ध आत्मा के साथ क्यों रखा जाये ? नहीं रखना चाहिये, वह कलंककी बात है ( fवरुद्ध है), परस्वको भावनासे सभी सम्यग्दृष्टि परसे विभक्त होते हैं एवं प्रारंभ से ही विरक रहते हैं । किम्बहुना विचार किया जाय । पर द्रव्यका त्याग करना उचित है । अस्तु ।
विचारधारा ( पद्धति )
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विचारधारा दो तरह की होती है ( १ ) सैद्धान्तिक दृष्टि ( निश्चयमय ) से ( २ ) नैमित्तिक दृष्टि ( व्यवहारमय ) से बहिरंग परिग्रहका त्याग करना क्यों आवश्यक है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि उसके निमित्तसे असंयम ( हिंसा द्रव्यहसा ) होता है अर्थात् बाह्य चीजों ( वास्तुक्षेत्र धनधान्यादि ) के साथ में रहने से उनकी उठाघरी-रक्षा सँभाल आदि करते समय बराबर जीवघात होता है, उससे असंयम होना अनिवार्य है अतः वह असंयम ( द्रव्यहिंसा) नैमित्तिक होने से वर्ज - नीय है अर्थात् बाह्य परिग्रहका त्याग करना जरूरी है । ( २ ) सैद्धान्तिक दृष्टिसे-बहिरंग परिग्रह आत्माका है नहीं, वह आत्मासे भिन्न है- प्रत्येक वस्तु या द्रव्य, दूसरी वस्तुसे भिन्न व स्वतंत्र है । फलतः आत्मा भी सबसे पृथक् एकत्वविभक्तरूप है। तब जानते हुए उसके साथ बाह्य परिग्रहका सम्बन्ध जोड़ना - संयोग स्थापित करना अज्ञानता है अथवा जिनोपदेशकी अवहेलना करके अपराधी बनना है । अतएव बाह्य परिग्रहका सर्वथा त्याग करना, सम्यक्त्वका चिह्न है- मोक्षमार्गका सेवन है । किम्बहुना | पापोंके त्याग करनेका प्रमुख उद्देश्य -संयम ( चारित्र) या अहिंसा का पालना है । और उनका त्याग न करना असंयम या हिंसारूप अधर्मका संचय करना है । अतः यथासंभव अहिंसा या संयम श्रावकको अवश्य प्राप्त करना चाहिये | अस्तु ||१२|| परस्परसंगति ( व्याप्ति ) या शंका समाधान
आगे प्रश्न उठता है कि परिग्रह त्यागके साथ में रात्रि भोजनका त्याग करना क्यों बतलाया
मिट्ट