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যুকথাখবিপজ इत्यादि खास अन्तर ( भेद ) समझना चाहिये । नैतिक दृष्टि से अनेक पशुपक्षी भी रात्रिको खाना नहीं खाते ऐसा नियम देखा जाता है.--रात्रिका समय विश्राम करने का है । अस्तु ।। १३०॥
बादी तर्क करता है कि जिस प्रकार रागको प्रचुरतासे रात्रि भोजन में हिंसा होती है उसी प्रकार दिन भोजनमें भी होना सम्भव है तब रात्रिको तरह दिनका भोजन क्यों न स्याम दिया जाय, दोनों में समानता है । इसका उत्तर आगे दिया जाता है । ( पूर्वपक्ष )
यो तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ।।१३१॥
सत्र समय नहिं भोजनका है, यह विश्रामकरनका है। और न उसमें दिख पड़ता है, जीवविधात ओ होता है। अत: कुराक नहीं यह करना, दिनका भोजन स्याग करे ।
दिन में दीख पड़त है सब कुछ, हिंसा भालस दूर टरे ।।१३।। अन्वय अर्थ-वादी कूतर्क करता है कि [ययेव-तहि दिवा भोजनस्य परिहारः कत्र्तव्य: ] यदि रागादिककी प्रचुरतासे और सदाकाल भोजन करनेसे रात्रिका भोजन त्याग कराया जाता है क्योंकि उससे अधिक हिंसा होती है, तो दिनको भोजन करना भी छोड़ देना चाहिये, क्योंकि उसमें भी तो राग होता है [सु निशाया भो ] और रात्रिको भोजन करना चाहिये इत्थं हिंसा नित्यं न भवमि ] ऐसा करनेसे हमेशा हिंसा न होगी अर्थात् एकबार ही होगी जब भोजन किया जायगा। अर्थात् बार-बार भोजन न करनेसे बार-बार हिंसा न होगी यह लाभ होगा ।।१३१३॥
भावार्थ--यह कुतर्क वादीका उचित नहीं है कि बार-बार अर्थात् दिन रात भोजन करनेसे जब हिसा होती है तब उस हिसासे बचने के लिये दिनको भोजन करना तो बन्द कर देना चाहिये
और रात्रिको हो ( एकबार ) आरामसे भोजन करना चाहिये इत्यादि । कारण कि रात्रिको भोजन करना अनेक दृष्टियोंसे हानिकर तथा वर्जनीय है क्योंकि उसमें अत्यधिक हिंसा होती है अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों हिसाएं होती है। दिनको भोजन करने में हिंसा कम और लाभ अधिक होता है, अतः वैसा श्रावकका कर्तव्य है। वास्तवमें देखा जाय तो यह श्लोक पूर्वपक्षका है, उत्तरपक्षका श्लोक आमेका है अस्तु ।।१३१|| उत्तर पक्ष-आचार्य इस श्लोक द्वारा रात्रि भोजनका खंडन करते हैं ।
नैवं वासरभुक्तः भवति हि रागाधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकबलस्य मुक्तः भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥१३२॥
१. यदि भवेत् क्रिया होती तो बेहतर होता. विचार किया जाय ।