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पुरुषार्थसिक्युपाय अभीतक आचार्य देवने समुदायरूपसे अन्तरंग परिग्रहका कार्य बताया है । आगे प्रत्येक कषाय ब कर्मका पृथक्-पृथक् कार्य बताते हैं । न्यायदृष्टिसे विश्लेषण करते हैं।
तत्यार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्त्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकायाश्च चचारः ॥१२४॥
पद्य सश्वार्थ श्रद्ध! बलनी है, उश्य जाब मिथ्यात्वका । अरु सुभान्छा होत नाही, उदय होग अनंतका। इन माँति असर कमका दी कार्य करते हैं पृथक् ।
उनको पृथक करना अहो ! पुरुषार्थ पच्चा वह अथक ।१२।। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ प्रथमच तरवार्थानाने मिथ्यावं नियुक्तं । हमने सबसे पहिले अन्तरंग परिग्रह मिथ्यात्वका कार्य जीवादि प्रयोजनमत सात तत्वां में विपरीत / जर श्रद्धाका होना बतलाया है ( कहा है श्लोक में० २२ में ).सो जानना परन्तु अब अनतानुबंधी कषाय ( अन्तरंग परिग्रह) का कार्य बताते हैं कि [aran: प्रधरपाया: सम्याद अनंतानुबंधी कषायके चारों भेद सम्यग्दर्शनको चुराते हैं अर्थात् सम्यकथद्धा या सम्यग्दर्शन नहीं होने देते ( रोकते हैं ) यह कार्य भेद दोनोंका है ।। १२४ ।।
भावार्थ-स्थायदृष्टिसे दो परिग्रहके या कर्मके दो पृथक् पृथक् कार्य होते हैं, दोनोंका कार्य एक नहीं है । अन्यथा एक व्यर्थ सिद्ध हो जायमा यह आपत्ति आती है। यह विचित्र विश्लेषण आचार्य महाराज ने ( अद्वितीय } किया है । वे कहते हैं कि मिथ्यादर्शन' नामका परिग्रह ( कर्म ) जीवोंको धद्धा-(प्रयोजन भूत सात तत्त्वोंमें) विपरीत करता है ( विधिरूप कार्य करता है। और अनंतानुबंधी कषाय नामक अन्तरंग परिग्रह ...कर्म । ( प्रयोजनभूत सात तत्त्वोंमें । सम्यक् श्रद्धा । सम्यग्दर्शन को रोकता है अर्थात् नहीं होने देता ( निषेधरूप कार्य करता है)। इस प्रकार विपरीत श्रद्धाको करना और सम्यक् श्रद्धाको न होने देना दो कार्य दो कमके हैं, एकके नहीं हैं ! ध्वन्यर्थसे भले ही कोई एक अर्थ निकाले परन्तु वह यथार्थ नहीं हो सकता इत्यादि।
विशेष नोट-सिद्धान्तमें भी मिथ्यात्व कर्मका चतुष्य जुदा है और अनंतानुबंधी कर्मको १. सात तत्त्वोंमें उल्टा या विपरीत श्रद्धान । २. तीनों भव-मिथ्यात्व, मित्र, सम्यक्स्व । ३. अनंतानुबंधी क्रोष मान माया लोभ बारों। ४, सम्मश्रद्धा अर्थात् अविपरीत बद्धा अथवा सम्यग्दर्शन । ५. अधिक