________________
परिप्रहपरिमाणात
२८५ सम्यग्दर्शनको यातना इसका मुख्य कार्य नहीं है किन्तु गौण कार्य या उपचार है और उसका खास हेत साहचर्य संबंध है. मयोगी पर्याय है।
(३) दोनों बहुधा साथ-साथ रहते हैं और साथ-साथ सदयमें भी आते हैं, अतएव काल दोनों का एक है। इस तरह द्रव्य ( अधिकरण ) क्षेत्र ( आत्मप्रदेश ) काल ( उदय ) एक होने पर भी भाव या कार्य दोनोंका जुदा-जुदा है...एक नहीं है।
(४) अनंतानुबंधोकर्म ( कषाय } में दो शक्तियां या स्वभाव माना गया है कि वह सम्यग्दर्शनको भी बातती है और स्वरूपाचरणचारित्रको भो धातती है ( जीवकांड गोम्मटसार गाथा २० तथा षट्खंडागम संतसुत्त जोयाण पृष्ठ १६६ देखो) ऐसा वहाँ लिखा गया है। सो क्यों? इस प्रश्न का उत्तर
(५) उक्त प्रकारका उल्लेख गौण मुख्यकी अपेक्षासे या निश्चयव्यवहार कथनको अपेक्षास है अर्थात् मुख्यतासे दोनों एक-एक कार्य ही करते हैं, मिथ्यात्वक्रम सम्यग्दर्शनको हो घालता है और अनंतानुबंधी कर्म स्वरूपाचरण चारित्रका ही धातता है, लेकिन गौणता { व्यवहार या उपचार ) से अनंतानुबंधीका कार्य सम्यक्तको पातमा भी बतलाया गया है। अतएव यहाँ श्लोक नं० १२४ में 'सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमषायाश्च चत्वारः, लिखा गया है और वहाँ जीवकांड गाथा २० में भी वैसा ही ध्वन्यर्थ रूपमें लिखा गया है। 'सम्मत्त रयणपव्वय सिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो, णासियसम्मत्तोसो सासठाणामो मुणयन्वा ।। २० ।।
भावार्थ-दूसरे सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें अनंतानुबंधी कषायके चार भेदों में से किसी भी एक भेदका उदय होने पर सम्यक्तरूपी रत्नके पर्वत परसे नीचे धरतीको ओर जीवका भाव हो जाता है अर्थात् नोचे मिश्यात्त्व (पहिले) में जानेको उन्मुक्ता या योग्यता ( प्रागभाव ) उसको प्राप्त हो जाती है न कि वहां वह चला जाता है, जिससे मिथ्यादृष्टि वह कहलावे। जबतक व्यक्ति या प्रकट दशा न हो जाय तबतक प्रकाट दशा मानना उपचार मात्र है, सत्य नहीं है। हैं। यदि सचमुच ऐसा होता तो उसको सासादन सम्यग्दृष्टि न कहकर खुलासा मिथ्यादृष्टि कहते परन्तु वह नहीं कहा जाता। इससे भविष्यपर्यायको ध्वन्यर्थसे मानना व्यर्थ है। सस्य बास तो यह है कि उसका उस समय द्रव्यनिक्षेपसे वैसा कह सकते हैं ( मिथ्याष्ट्रि ) किन्तु भावनिक्षेप से नहीं। अतएव अनंतानुबंधो कवाय सम्यक्त्वको मुख्यतासे नहीं घासती, उपचारसे घातती है। जिस प्रकार चोरी करनेवाला असलमें चोर है किन्तु थ्यवहारमें चोरकी सहायता करनेवाला या साथमें रहनेवाला भी चोर कहलाता है, यहो न्याय यहाँ पर मिथ्यात्वके साथ होनेसे अनंतानुबंधीको भी लगता है ( संगतिका दोष लगता है) इत्यादि । यदि सत्य कहा जाय तो सासादनका काल सम्यक्त्वका ही बकाया काल है ( छह आवली काल ) वह मिथ्यात्वका काल नहीं है जैसा कि सम्यग्दर्शन होनेके पहिले करणत्रयका काल मिथ्यात्वका ही है, सम्यक्त्वका नहीं है । तब अपनेअपने कालमें उसका पद या स्वरूप कैसे बदल जायगा, यह विचारणीय है, इसमें हठ या पक्षका प्रयोजन नहीं है---तत्वका निर्धार करना है । जैनागम या जैन साहित्य में ऐसा प्रसंग या प्रकरण अनेक जगह आया है। अतएव कोई नवीन बात नहीं है । तत्त्वका निर्धार करना गुण है, दोष या