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पुरुषार्थसिद्धधुपाम स्वभाव । सिर्फ जानना देखना व सबसे पृथक रहना ) को छोडकर पर अर्थात् शारीर व धनादिमें एकता या अभेद स्थापित करता है जो अकालमें असभव है। वस्तु स्वभावके प्रतिकूल है अर्थात् कोई एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में स्वभाव छोड़कर सर्वथा तादात्त्मरूपसे मिल नहीं सकता न कभी अनादिकालसे मिला है, स्वभावको लिये हुए सब जुदे-जुदे रहे हैं। 'स्वभालो नातिवर्तते' यह कहा गया है। न्यायके अनुसार यद्यपि जीव ( आत्मा) अपना ज्ञाता दृष्टा । चेतन ) स्वभाव को छोड़कर, जड़ स्वभाववाले पुद्गलादिरूप (तन्मय ) नहीं हो सकता तथापि या फिर भी मिथ्यादष्टि हठसे प्रकृतिविरुद्ध परके साथ मिलने या तादात्मरूप होनेका प्रयत्न करता है यह उसकी महान भूल व अज्ञानता है अर्थात् वस्तु स्वभावकी विस्मृति है। इस प्रयत्नमें { असंभव कार्य में ) जब वह सफलता नहीं पाता तब दुःखी होता है, इष्ट अनिष्ट व गगद्वेषरूप बुद्धि करता है, इत्यादि विपरीतता मानना व वैसा आचरण करना मिथ्यारवका प्रभाव है, वहीं विपरीत श्रद्धा या मान्यताको जन्म देता है अर्थात् वस्तुस्वभावको भुलवा देता है तब तत्वार्थ या वस्तु स्वभाव में वह गलती करने लगता है. कुछ से कुछ मानने लगता है। इसीका नाम नास्तित्त्व या अन्यथापना है। ऐसी स्थितिमें वह अपराधों रहता है एवं संसार में रहने की सजा ( दंड । पाता है। अतएव सबसे पहिले जीवको यही असली व बड़ी भूल ( मिश्यादृष्टि ) निकालना चाहिये तथा सम्यक्त ( सम्यकदृष्टि ) प्राप्त करना चाहिये तभी जीवनको सफलता है, अन्यथा नहीं यह निष्कर्ष है।
अहिलठति यद्यपि स्फुटदनम्तफाक्तिः स्वयं । ताप्यपरवस्तुमो विशति नान्यस्वन्तरम् ॥ स्वभावमियतं यतः सकलमेव वसिषष्यते।
स्वभावचलनाकुल; किमिह मोहित: क्लिश्यते ।।२१२।। समयसार सलप ॥२१५५ भी। नोट-पुराणोंमें श्रीरामचन्द्रजीको मर्यादापुरुषोत्तम लिखा है वह व्यवहारका कथन है। क्योंकि उन्होंने सीताजीको भी अग्नि परीक्षा लेकर लोक पद्धतिका निर्वाह किया था, भंग नहीं किया था किन्तु निश्चयसे मर्यादा पुरुषोत्तम सम्यग्दष्टि जीव ही होता है जो वस्तुको मर्यादा ( स्वभाव ) को नहीं छोड़ता-उसीमें स्थिर रहता हैं इत्यादि । मिथ्यादृष्टि मर्यादा ( स्वभाव ) तोड़ देते हैं---विचलित हो जाते हैं इति---
विशेषार्थ ( स्पष्टीकरण )
मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीमें विश्लेषण (१) मिथ्यात्त्वकर्म, सम्यग्दर्शन गुणको धातता है अर्थात् वह विपरीत श्रद्धान करता है अथवा मोक्षमार्गोपयोगो जोब अजीवादि सात तत्वोंको यथार्थ श्रद्धा नहीं होने देता-उसको ढाँकता है, प्रकट नहीं होने देता, यह मुख्य कार्य है।
(२) अनंसानुबंधीकर्म स्वरूपाचरण चारित्रको घातता है, यह मुख्य कार्य है। किन्तु