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पुरुषार्थ पा
अपराध नहीं है । अपराध या दोष उल्टा मानना या निर्धार न करना है, यह ध्यान में रखा जाय । अस्तु ।
वस्तुस्वभाव के अनुसार अपना कार्य करते हुए दूसरेको सहायता देना या मदद करना कर्तव्य पालन है । तदनुसार मिध्यात्वकर्म अपना मुख्य कार्य विपरीत श्रद्धाका करना यह करते हुए दूसरा गौण कार्य सम्यक् श्रद्धाको घाना याने उससे हटाना या व्यावृत्ति करना, यह भी करता है अथवा अनंतानुबंधीको स्वरूपाचरण चारित्रके घातने में मदद देता है। इसी तरह अनं. तानुबंधी कषाय अपना मुख्य कार्य स्वरूपाचरण चारित्रको पालना करती है। और गौण कार्य frani मदद देना भी करती है। तब कोई विरोध नहीं आता, सब विरोध प्रश्न व शंकाएँ समाप्त हो जाती है। हां गौण कार्यको कभी मुख्य कार्य नहीं समझना चाहिये जो वस्तु स्वभावगत है। इसके सिवाय एक बात और भी है कि यदि अनंतानुबंधी कषायको सम्यक्त्वको घातक मानी जाय हो वह पूरी धागो या खंड रूपसे यह प्रश्न होगा । यदि सभीको घातेगी तो जब एक साथ चारों भेदों (क्रोधादि ) का उदय होगा तभी वह समर्थ होगी - सबको घातेगी; एक-एकके उदय होने पर तो अंश अंश रूपसे बातेगी, तब एक कालमें आंशिक सम्यक्त्व व आंशिक मिध्यात्व दोनों मिश्ररूप रहेंगे यह आपत्ति आयेगी ? ऐसी स्थिति में मुख्य गौण मार्गका अवलम्बन करना ही श्रेयस्कर है - साध्यका साधक है । किम्बहुना विचार किया जाय हमलोगों का क्षायोपशमिक अल्प ज्ञान है ।
आचार्य आगे अप्रत्याख्यानावरणकषाय ( परिग्रहल ) का कार्य बतलाते हैं ।
प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सम्मुखायातः । नियतं ते हि कषायाः देशचरित्रं निरुन्धन्ति ॥ १२५ ॥
पद्य
है- देशबारे प्राप्त होता देश चरित्र घात होता || अणुव्रत धारण कहलाता देशपरियां गिना जाता || १२५।।
किषाय त्यागता जब अतः सिद्ध होता है इससे अप्रस्माकथान कषाय छोड़ना धर्म अहिंसा deer है अरु
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ व द्वितीयान् विहाय ] जीव जब दूसरी कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण कषायको त्याग देता है ( पृथक् कर देता है ) तब [ देशचरित्रस्य सम्मुखायातः देशचारित्र अर्थात् अणुव्रत या देशचारित्र धारण करनेके योग्य होता है अर्थात् उसको देशचारित्र प्राप्त होता है, यह नियम है। इससे मालूम पड़ता है कि [ हि ते कषायाः नियतं देशखरिश्र
१. छोड़ देने पर अर्थात् पृथक् कर देने पर ।
२. अपश्याख्यानावरण कषाय ।
३. अणुखत या देशश्रत ।