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पद्म
er परिग्र दो प्रकार है-जीव अजीव उसे जानो । उसके रहते राम होत है हिंसा उसको पहिचान || परिग्रह हिंसा व्याप्ति कहा हैं, इसमें झूठ नहीं कोई। ऐसा परिग्रह कोई नहीं है, जिसमें हिंसा नहि होई ।।११७३
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ अथ वाह्यस्य परिग्रहस्य निश्चित्तसती दो भेदों ] इसके बाद अर्थात् अन्तरंग परिग्रहके कथन करनेके पश्चात् बहिरंग परिग्रहके अचित ( जड़ } और सचित्त ( वेतन ) ये दो भेद मूलमें होते हैं । इनमें से [ सर्वोऽपि एषः संसः कदापि हिंसा न अ] कोई भी परिग्रह ऐसा नहीं है जिसमें हिंसा ( साक्षात् या परंपरया, प्रत्यक्ष या परोक्ष ) कभी न होती हो ? अर्थात् सर्वदा होती है-अनिवार्य है ॥ ११७ ॥
भावार्थ-परिग्रहको और हिंसाकी पक्की व्याप्ति है ( अविनाभाव नियम है ) कभी दल नहीं सकती | अतएव अन्तरंग परिग्रह हो या बहिरंग परिग्रह हो बराबर मूर्च्छारूप होने व उसका निमित्त होने से हिंसाका होना अनिवार्य है । बाह्यपरिग्रह मूच्छ | अन्तरंग परिग्रह )का निमित्तकारण होता है । अतः वह भी हेय है । सामान्यतः बाह्यपरिग्रहके अन्यत्र ( १ ) सचित्त ( २ ) अचित्त (३) मिश्र ऐसे तीन भेद माने गये हैं। जैसे कि क्षेत्र वास्तु हिरण्य सुवर्ण धन धान्य दासी दास कुण्य भांड ( वस्त्र और बर्तन ) इनमें सिर्फ दासीदास चेतन हैं, दोष आठ अचेतन हैं ऐसा समझना चाहिये | अस्तु ॥ ११७ ॥
आगे आचार्य उपसंहार ( सारांशरूप ) कथन करते हैं।
उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः द्विविधपरिग्रह
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सूचयन्त्यहिंसेति । हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ।। ११८||
पद्य
साररूप यह कथन किया है आगमके ज्ञाताभने । हिंसा और अहिंसा दोनों भेद किये हैं परिग्रह ने || दोनों रहत परिग्रह जिनके हिंसा उनके होती है।
नहिं परिग्रह जिनके होता-अहिंसा उनसे पलती 119921
१. छोड़ना त्यागना ।
२. ग्रहण करना ।
३. आगम या जिनवाणी के जानकार |
अन्वय अर्थ - [ जनप्रवचनाः आचार्या-उभयपरिग्रहवर्जन महिंसेति सूचयन्ति ] जिनागमकेज्ञाता आचार्य, दोनों तरहके परिग्रहका त्याग कर देना सो 'अहिंसा धर्म है' और [ द्विविध