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पुरुषाथसिद्धअपाय मानता तभी वह तर्क ( शंका ) करता है। खास बात यह है-यह स्पष्टीकरण है। संभवतः अब आगे वह तर्क न करेगा इत्यादि । बाह्य परिग्रह नाममात्रका है. वह अकेला ( बिना अन्तरंग परिग्रहके ) कुछ बिगाड़ सुधार नहीं कर सकता। वह खाली देखने मात्र विजूकाके समान है। परन्तु शैतान कुछ न करे पर हलाकान करता है, इस न्यायसे उसका भी त्याग करना ही चाहिये। क्योंकि परवस्तुका संयोग भी बुरा होला है। संयोगके छुटनेपर हो अर्थात् वियोगके होनेपर ही मुक्ति होती है । अन्त में यह उदाहरण है इसे समझना । किम्बहुना-.-बाह्य परिग्रहका लगाव अन्तरंग परिग्रहके साहितिरूप माना जाता है । अंत ।। ११५ ।। अन्तरंग परिग्रहो १४ भेद बताए जाते हैं।
मिथ्याचवेदगमास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तराः ग्रन्थाः ॥११६।।
पद्य पहिला भेद मिथ्याय अरु बेदश्रय पहिचान । चार कषाय मिलाय पुन नोकषाय छह जान ।। सय मिलाकर चौदह अये, अन्तर परियार भेद ।
इन सबको निखारना, इनसे होता खेर ॥ ५ ॥६॥ अन्वय अर्थ- मिथ्याश्ववेदरागा ] मिथ्यात्व और रागरूप तीन वैद्र ( स्त्रोवेद, पुरुषवेद, नपुंसकावेद ) । तथैव हास्थादयः पद् दोषा: J और हास्य रति अति शोक भय जुगुप्सा, ये छह नोकपाएं | न चत्वारः कमाथा: J और क्रोध मान माया लोभ, ये चार ऋषाएं, { चतुर्दशाभ्यम्सराः मन्थाः ये कुल मिलाकर १४ चौदह अन्तरंग परिग्रह होते हैं। अर्थात् इनका अस्तित्व भीतर आत्माके प्रदेशों में पाया जाता है, बाहिर आकार प्रकारसे जाहिर नहीं होते इत्यर्थः ।। ११६ ।।
भावार्थ---उपर्युक्त १४ भेद सब मूर्छा अर्थात् रागद्वेष मोहरूप होनेसे अन्तरंग परिग्रहमें शामिल हैं. उनसे एकके भो रहते मोक्ष नहीं होता यह नियम है। फलतः सभीका निर्मल त्याम होना चाहिए इत्यादि । इसीका नाम निर्गस्थता या मिपरिग्रहपना है जो साक्षात् मुक्तिका कारण माना जाता है, ऐसा जीव ही निकट संसारो समझना चाहिये । किम्बहना--- आगे बहिरंग परिग्रहके दो भेद बतलाए जाते हैं ----जिनसे हिंसा होती है ।
अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ । नैषः कदापिसंगः सर्वोऽप्यतिवर्तते हिसाम् ॥११७॥
१. निकालना, त्यामना चाहिये। २. दुःख या संसार।