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पुरुषार्थपा
परिवहन, हिंसा इति सूचयन्ति ] दोनों तरहके परिग्रहको धारण करना ( संग्रह करना या आसक्त रहना ) सो 'हिंसा' है ऐसा सारांश कहते हैं, अर्थात् यह संक्षेप कथन है ऐसा समझना चाहिए ।। ११८ ।।
भावार्थ - अनादिकालसे दोनों प्रकारका परिग्रह जीवोंके साथ संयोगरूपसे मौजूद रह रहा है, उसीकी बदौलत संसारसे पार नहीं हो पाते। जब वह निःशेष ( पूर्णरूप ) छूट जाता है तभी जीव मुक्त या संसारसे पार होता है। इसका रहस्य यह है कि जबतक परिग्रह साथ रहता है तबतक हिसापाप लगता रहता है अर्थात् 'अहिंसा धर्म' परिपूर्ण नहीं होता और बिना उस धर्मके पूर्ण हुए वह जीन मोक्ष नहीं जा सकता - संसारयें ही निवास करता है । वह अहिंसा, बात्मा या जीवका स्वभाव है और हिंसा अथवा परिग्रह जीवका विभाव है । तब उसके रहते हुए स्वभाव प्राप्त नहीं हो सकता, परस्पर विरोधी होनेसे । इसीलिये शुद्धोपयोगको ही वीतरागता रूप अहिंसक Fararrant ही, मोक्षका कारण अध्यात्मशास्त्रों में बतलाया गया है। शुद्धका अर्थ है विकारसे रहित आत्माका परिणाम ( भाव ) जो कि ज्ञानानन्द स्वरूप है । फलतः उस शुद्धोपयोगको प्राप्तिके लिये संयोगी पर्याय में अन्तरंग विकारीभाव ( मिथ्यात्वादि १४ प्रकार परिग्रह ) और उनके निमित्तभूत १० दशप्रकारके या संक्षेप में सत्रित ( चेतन ) अचित्त । जड़ ) दो प्रकारके बहिरंग परिग्रहका त्याग अवश्य करना चाहिये तभी प्रयोजनको सिद्धि हो सकती है, नान्यथा इति
'अहिंसा' का उद्गमस्थान या आयतन आत्मा ही है परन्तु वह तब प्रकट होता है जब कि संयोगी (साथी) विकार अन्तरंग व निमित्त बहिरंग दूर हों। बस उसीके लिये पुरुषार्थकी Maratear मानी गई हैं। अतः उसे करना ही चाहिये परन्तु निमित्तमान करके, उपादान नहीं, यह लक्ष्य रखना नितान्त आवश्यक है । किम्बहुना
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सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि के परिग्रहपने में पूर्व पश्चिम जैसा अन्तर । मेद ) रहता है ( १ ) सम्यग्दृष्टि बाहिर परिग्रही देखने में आता या लगता है। किन्तु भीतर परिग्रही नहीं है। कारण किं वह परवस्तु मात्र से विरक्त रहता है--अरुचि रखता है, होनेका विषाद ( दुःख) करता है- पुष्कर पलाशवत् मिलिप्त रहता है । अतः कथंचित् परिग्रही नहीं है और मोक्षमार्गी है। तथा मध्यादृष्ट बाहिर भीतर दोनोंसे परिग्रही है, उसको भेदज्ञान न होनेसे सबको अपना ही मानता है कभी उन्हें त्याज्य नहीं समझता, न अरुचि करता है। निरन्तर उनमें रुचि या राग करता हुआ मस्त रहता है | अतः वह मोक्षमार्ग-निष्परिग्रही नहीं है, प्रत्युत संसारमार्गी है । इत्यादि ॥ ११८ ॥
आचार्य-अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहों में हिसा बतलाते हैं ।
निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे
हिंसापर्यात्वात् सिद्धा हिंसान्तरंगसंगेषु | बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छेव हिंसात्वम् ||११९ ॥