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पुरुषार्थलिकापाय है । दोमेंसे अर्थात् अन्तरंग व बहिरंग इन दो परिग्रहों से केवल एक परिग्रह अथवा बाह्यपरिग्रहका त्याग करना है)। १० वीं प्रतिभाधारी तीसरे अनुमोदना भंगसे भी त्याग कर देता है अतएव उसे उत्तमश्रावक कहते हैं, परन्तु वह भी तो बाह्यपरिग्रह मात्रका त्यागी होनेसे अपूर्ण त्यागी व अपूर्ण ब्रह्मचारी है अथवा एक देशत्यागो है। फलतः ११वों प्रतिमाधारी बारह अतोंके धारी सभी एक देश त्यागी हैं ऐसा समझना चाहिये, विचार किया जाय । रूड़िकी बात ( मान्यता । दूसरी होती है और शास्त्रको बात ( मान्यता ) दूसरी होती है, किम्बहुना ।
सागारधर्मामृतादिमें इस विषय में विषमता पाई जाती है उसका यहाँपर निष्प्रयोजन और विवादकारक होनेसे विचार नहीं किया गया ऐसा समझना ।
चारित्रके सम्बन्ध में ____ आगे अथावसर विचार किया जायगा---संक्षेपमें चारित्र, पर्यायल्प है और वह पर्याय द्रव्यके अनुरूप होना चाहिये अर्थात् जैसी दव्य हो वैसी पर्याय हो सब वह पर्याय चारित्र कहलाये। तदनुसार आत्मद्रव्य शुद्ध, रागादि दोष रहित वीतरामसा गुणरूप है तब उसकी पर्याय भी तो वीतारागला रूप होना चाहिये, किन्तु रामरूप नहीं होना चाहिये, यह न्याय व सिद्धान्त है, उस चारित्र के धारण करनेका निषेध नहीं है--विधि है सो धारण किया जाय इत्यादि । प्रवचनसार अध्याय ३ में देखो।
यस्य सिद्धौ वरणस्य सिदिः चरणस्य सिद्धी द्रव्यस्य सिथिः ।
दुधोगिक पहिसा: अव्याविरुद्धं धरणं चरन्तु ।। १ ।। टीकाकार नोट----यहाँपर शुद्ध वीनुराग चारित्र धारण करवाने की योजना { प्रेरणा ) की गई है। और अशुद्ध शुभराग रूप चारित्र धारण न करनेकी शिक्षा दी गई है ऐसा समझना और भी नियमसारमें इसी तरह 'द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मिथो द्वमिदं ननु सत्यपेक्षं । तस्मान्मुमुक्षु. रधिरोहतु मोक्षमार्ग । द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरण प्रसीत्व' || सारांश यह कि चारित्र तो वह है जो बन्धको दुर करे अत: वह वीतरागता रूप है। और जो बन्ध करावे यह कैसा चारित्र ? अतः बन्धकारक शुभराग चारित्र नहीं हो सकता, वैसा मानना उपचार या व्यवहार मात्र है अस्तु ।
परिग्रहपाप प्रकरण आचार्य परिग्रहका स्वरूप बताते हैं।
या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीणों मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥११॥
मूळ नाम परिग्रहका है पाप पांचवां कहलाता । मोह उदयके कारणसे वह होता यह प्रभु बतलाता ॥ मूळ ममता और परिमह नाम भेद उसके जामी । मूल पदारथ एकहि हैं नहिं भेद रूप उसको मानो।॥ ११ ॥