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বৰিণাৰাত্মত यशेवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरंगः । भवति नितरां यतोऽसौं धत्ते मूर्छा निमित्तत्यम् ॥११३॥
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मुगथ परिप्रद मुळ ही है, इसमें करना नहीं विकल्प । फिर भी था। परिव भाला, व्यवहर नयसे र संकल्प ।। कारण उसमें निमित्तना है, मूच्छदिकके होने में ।
अतः त्यागना उसका भी है. मिविकरुपता होने में ||११३ । अन्वय अर्थ-आचार्य करते हैं कि शंकाकारका यह कहना सर्वथा सत्य नहीं है कि [ यदि एवं सदा रषलु कोऽपि वहिरंगः परिग्रहः न भवति ] यदि मूछ को ही ( अन्तरंगचोज विकारको ही) मुख्य परिग्रह माना जाय या मानते हो तो निश्चयसे बाह्य परिग्रह कुछ भी न बनेगा ( असिद्ध रहेगा ) अर्थात् बाह्य परिग्रहका मानना व्यर्थ सिद्ध होगा ( निष्फल है)।किन्तु उक्त तर्कका उत्तर ( समाधान ) यह है कि वैसा नहीं है [ यसोऽसौ मूच्र्छा निमित्तस्वं नितरां धत्ते ] कारण कि बाह्य वस्तुएँ भी परिग्रहरूप ( लगाबरूप } मानी जाती हैं । उनका खंडन नहीं किया जा सकता) क्योंकि वे मुर्छाक होने में हमेशा निमित्त कारण होती है अर्थात् उनके रहते हुए मूर्छा होती है। अतएव व्यवहारनबसे निग्वित्तताकी वजहसे वे भी परिग्रहरूप हैं इत्यादि समाधान है ।। ११३ ।।
भावार्थ-आजकल प्रायः लोगोंकी दृष्टि निमित्तोंकी और मुन्यतासे हो रही है—निमित्तको ही सर्वेसर्वा मान रहे हैं अर्थात निमित्तसे हो सब कुछ कार्य होता है यह धारणा बन गई है जो अभूतार्थ है ( व्यबहारमात्र है)। निश्चय से उपादान ही सर्वेसर्वा ( सबकुछ मूल कारण ) है ऐसा समझना चाहिये । परन्तु अज्ञानी जीव बाह्य धनधान्यादि सब या आरंभ ( साधन ) को ही परिग्रह मानते हैं. अन्तरंग मुर्छा परिणामको परिग्रह नहीं मानते, क्योंकि वह दष्टिगोचर नहीं होता अतः वे भ्रममें पड़ जाते हैं। यदि उनका मानना सत्य होता तो बाह्य परिग्रहसे रहित पशुपक्षो मनुष्य सभी मोक्ष चले जाते, क्योंकि मोक्षका कारण निर्ग्रन्थता (परिग्रह रहितपना ) बतलाया है। परन्तु वैसा नहीं होता-यह सब विपरीतता है। अत: असली परिग्रह तो अन्तरंग मा हो है किन्तु निमित्तरूप होनेसे बाह्य धनधान्यादि भी व्यवहार या उपचारसे परिग्रह
ये हैं 1 फलत: मन्यतया अन्तरंग परिग्रहका त्याग करना जरूरी है। बाह्य तो भिन्न है हो, उसके छोड़ने में क्या देरी या अडचन है? कुछ नहीं, वह आसानी ( सरलता) से छट सकता है 'मूलाभावे कुप्तः शाखा' यह न्याय है। परन्तु अन्तरंग परिग्रहका छोड़ना कठिन है और वही हिंसा के साथ व्याप्ति रखता है....बाह्य नहीं यह तात्पर्य है अस्त ।
नोट-बाह्य परिग्रहका दूसरा अर्थ, बाह्य अर्थात् दृश्यमान पदार्थ, उनका परिग्रह अर्थात् त्रियोगसे या एकत्व मानकर ग्रहण करना-बाह्यपरिग्रह कहलाता है, सो वह कब होता है जबकि अन्तरंग कारण हो, वह अन्तरंग कारण मच्छी ( मिथ्यात्व ) या रागादि परिणाम हैं, अतएव
माने