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अचौर्याणवत
१५७ इष्टपदार्थ का हरण { चोरी ) या वियोग हो जाय तो वह अत्यन्त दुःखी होकर प्राणतक छोड़ देता है ( उसका मरणतक हो जाता है ) या वह वह उस वियोगजन्य पीडाको नहीं सह सकता तब आत्मघासतक कर डालता है, मह उसको बड़ी भूल है । वह परद्रव्य कभी आत्मा ( जीव )की नहीं हो सकती,कारण कि दोनों चीजें एक... तादात्म्यरूप नहीं है ---संयोगरूप भिन्न-भिन्न हैं। उनका स्वभाव आदि सभी पृथक-पृथक है, फिर वे एक कैसे हो सकती हैं व मानी जा सकती हैं यह विचारणीय है? परन्तु मुर्ख अज्ञानी यह विचार नहीं करता, इसीलिये द:खी होता है । वस्तुका संयोग वियोग होना स्वभाव है वह कृत्रिम (परकृत ) नहीं है। स्वत: सिद्ध या जन्मसिद्ध अधिकार है जब जैसा होना है सो होगा ही। बस, यह उक्त प्रकारको परमें एकत्वरूप भूलके निकलनेपर ही संयोगी पर्यायके तमाम पाप पुण्य व सुख दुःख नष्ट हो जाते हैं किम्बहुना। मोहोजीव विवेकको खो बैठता है तब अपने सिरमें पत्थर मारकर स्वयं दुःखी होता है व चिल्लाता है। हाय ! पत्थर मार दिया इत्यादि यह विडवना सब कर्म ( पुद्गल की पर्याय ) कृत है अर्थात् उसके उदयरूप निमित्तके मिलनेपर होती है यह निर्धार है। फलतः निमित्तकारणको अपेक्षा धन एवं प्राणको एक-सा बतलाया गया है ऐसा समझना चाहिये । परन्तु है यह उपचार कथन । अन्तरंग या भीतरी हिसा पाप, संक्लेशतारूप परिणाम होनेसे आत्माके भावप्राणोंका घात होता है वह लगता
वादी तर्क करता है कि चोरीका सम्बन्ध हिसासे कैसे जोड़ा जा सकता है, जबकि चोरीका सम्बन्ध परद्रव्यसे है और हिंसाका सम्बन्ध प्राणघात ( मरण से है ? अतएव दोनोंकी व्याप्ति ( संगति ) नहीं बैठती । इसका समाधान किया जाता है ।
हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एवं सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमनयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ॥ १०४ ।।
चीरी और जु हिंसाका है अविनाभाव सदा मानी। अतः उभयका कारण है वह एक प्रमादयोग जामो ॥ अतः नहीं है अव्याप्तिका भत्र इसमें निश्चय माभो ।
जहाँ चीय वहाँ हिंसा होसी दोनोंकी तुम पहिचानी ॥ १४ ॥ अन्वय अर्थ.... आचार्य कहते हैं कि हिंसायाः स्तेयस्य च श्रव्याप्तिः म ] हिंसा ( प्राणघात) और 'चोरीमें व्याप्तिका अभाव है, फिर बैसी शंका (तक) नहीं करना चाहिये, [बस्मात् सा सुघट एम ] 4. वह व्याप्ति बराबर सिद्ध होती है। देखो [ अन्यैः स्वीकृतस्य द्रव्यस्य अन्य ग्रहो
१. अदत्तादानं स्तेयम्, सत्यार्थसूत्र अ• ७ २. व्याप्ति अर्थात् अविमाभाव या साहचर्य नियम ।