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wীবানুগ सारांश-शंकाकारका कहना है कि यदि चोरी और हिंसा एक साथ होती है तब वीसरागी महात्मा भी बिना दिये कर्माको ग्रहण करते हैं, जो चोरी है 'अदत्तादानं स्तेयम्' यह तत्वार्थसूत्र है। ऐसी स्थिति में हिंसाका लक्षण अलक्ष्य ( विपक्ष ) वीतरागियों में चला जानेसे अतिव्याप्ति दूषण लग जायगा इत्यादि । इसका खंडन आचार्यदेवने लक्ष्यसे भिन्न अर्थात् विपक्ष या वीतरागी बताकर किया है किम्बहुना ।। १०५ ।।
अन्त में आचार्य अणुव्रतो श्रावकको सारांशरूप उपयोगी शिक्षा देते हैं, जिससे व्रतमें बाधा न आये।
अप्रयोजनभूतका स्याग कराते हैं असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । गि समात नित्यदः परित्याज्यम् ॥१०६॥
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ओ श्राक्ष नहिं छोड़ सकत है, पर के पानी आदि को । उनका भी कसम्य यही है, अन्य छोड़ दें अदप्त को ३ पदके माफिक वरसम काना, नहिं अन्याय कहाता है।
स्यागी सत्यागी में श्रन्तर, यही समझमें भाता है ॥१०६।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ये निपानसोयादिहरणविनिवृत्ति कत असमर्थाः ] ओ गृहस्थ या श्रावक ( अणुव्रती ) दूसरोंके कुआँ आदिका पानी ( प्रयोजनभूत ) विना दिया हुआ नहीं त्याग सकते अर्थात् मालिककी आज्ञा या स्वीकृति के बिना भी उपयोगमें { बविमें लाते हैं, उसको वै पदके अनुसार उपयोगमें लायें क्रिम्त । नैरपि समस्तम्मपरं असं नित्यं परिस्माजमं] उन प्रयोजनभूत चीजोंके सिवाय ( अतिरिक्त अन्य सभी अप्रयोजनभूत चीजोंका विना आज्ञा या स्वीकृतिके हमेशा त्याग कर देना चाहिये ( श्रावकोंका यह कर्तव्य है आज्ञा है ) इससे एकदेश चोरीका स्थाग करके वे त्यागी अणुवती बने रह सकते हैं, अर्थात उनका अणुश्रत भंग नहीं हो सकता ।।१०६॥
भावार्थ-असंयमी और अवती जीवनफी मोक्षमार्गमें कोई कीमत्त नहीं है अतएव सम्यग्दर्शन सहित यथाशक्ति प्रत धारण करना प्रत्येक गृहस्थ श्रावकका कर्तव्य है, परन्तु यह सब पद : और योग्यताके अनुसार होना चाहिये । अन्यथा लाभके स्थानमें हानि हो जाती है । यही बात
१. अलक्ष्यवृत्तित्वमतिव्यामित्वम्, यह लक्षण है । २. सिर्फ जल-मिट्टीका उल्लेख छत्वालामें 'जलमृतिका बिन और नाहिं कुछ गहें अदत्ता' किया गया हैं मालूम
पड़ता है यह उदाहरणमात्र है, सीमा नहीं है अर्थात् दो ही चीजों की छुट्टी नहीं हैं और भी प्रयोजनभूत है.--.-विचार किया जाय।