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अचौर्याणुगत
ISHRA
हो जाय,
सारशि---'यत्र-यत्र चोरी तत्र-तत्र हिसा' अर्थात् जहाँ-जहाँ प्रमाद योग सहित चोरी हो वहां वही हिंसा अवश्य होती है। कालेतार्थ यह कि जहाँ-जहाँ कषाय हो वहाँ-वहाँ हिंसा अवश्य होती है अथति हिंसाकी व्याप्ति कषायके साथ है और यह हिसाका लक्षण 'प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिसा' (त. सू. बिल्कूल निदोष ( अव्याप्ति अतिव्याप्ति-असंभव दोषरहित ) है ऐसा समझना चाहिये । कषावरहित मन-वचन-काय इन तीनों योगोंको प्रवृत्ति या क्रिया, हिंसा पाए है अस्तू। हिसासे मतलब केवल बाह्य प्राणों के घात होनेका नहीं है कि शरीर नष्ट हो किन्तु भावप्राणोंके घात होने का भी है कि आत्माके ज्ञानादिक गुणोंका नष्ट होना भी हिंसा कहलाती है। ऐसी स्थिति में कषाय उत्पन्न होते समय कोई न कोई हिंसा अवश्य होती है वच नहीं सकती। तब कहना पड़ेगा या कहना चाहिये कि कषायोदयको और हिंसाको व्याप्ति बरावर है। यदि कदाचित् बाह्य हिंसा (द्रव्य हिसा ) न हो तो अन्तरंग हिंसा ( भाव हिंसा ) हो ही जातो है इति !
चौरीका अर्थ, परद्रव्यका अपहरण करना है जो लोकव्यवहार है उसे लोपामें चीरी करना कहा जाता है। तथा चोरी करनेका भाव होना अर्थात् परद्रब्य ग्रहण करनेका राग { कषाय ) होना, यह अलौकिक या अन्तरंग चोरो है। इस तरह दो चोरियों होती हैं। परन्तु दोनोंका मूल कारण एक 'प्रमाद योग' है अतएव वह हिसारूप है। तब यह नहीं कहा जा सकता कि चोरी करने में हिंसा नहीं होती और इसीलिये चोरीको हिंसाके साथ व्याप्ति नहीं है ( अन्याप्ति दूषण है)। यदि बैसा कहा जाय तो गलत होगा अस्तु । 'जहाँ-जहाँ प्रमाद है वहाँ-वहाँ हिंसा है। यह हिंसाका लक्षण निर्दोष है अर्थात् अव्याप्ति व अतिव्याप्ति व असंभव, इन तोन लक्षणके दोषोंसे रहित है....शुद्ध है। तदनुसार झूठ, चोरी, कुशील आदि करनेके भाव होना, सब प्रमादमें शामिल हैं और हिंसारूप हैं । तथा तज्जन्य क्रिया...योगप्रवृत्ति भी हिंसा पापरूप है । यतः कारणाके अनुरूप कार्य होता है ऐसा न्याय है किम्बहुना ।। १०४ ॥
नोट-यथासंभव पेश्तर अध्याति, अतिव्याप्ति, असंभव, इन तीनों दोषों का लक्षण बताया जा चुका है कि जो लक्षण पक्ष ( समुदाय ) के एक हिस्से में रहे या घटित होवे उसको 'अव्याप्ति दोष' कहते हैं और जो लक्षण,अलक्ष या विपक्षमें भी रहे या घटित होवे उसको 'अतिव्याप्ति दोष' कहते हैं जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनोंमें रहे उसे अतिव्याप्ति दोष कहते हैं और जो लक्षण लक्ष्य था पक्ष में विलकुल न रहे या घटित न होवे उसको 'असंभव दोष' कहते हैं ऐसा संक्षेपमें समझना ।। १०४॥
यहाँपर यदि कोई यह शंका करे कि जब बिना दी हुई परवस्तुका ग्रहण करना चोरी कहलाता है तब केवली वीतरागी भी तो बिना दिये कर्म ग्रहण करते हैं अतः उनको भी चोरीका दोष लगना चाहिये? .
आचार्य समाधान करते हैं कि हिंसाके लक्षण में 'अतिव्याप्ति' दोष भी नहीं है जैसा अव्याप्ति दोष नहीं है यथा----