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पुरुषार्थसिद्धांपाय इस इलोकमें आचार्य ने कही है। थोड़ा-थोड़ा प्रमाद छोड़कर प्रमादरहित ब्रत या त्याग ( शुद्ध बोलरागतारूप ) अवश्य करना चाहिये तभी जोबन सफल हो सकता है। कमसे-कम अप्रयोजन भूत कार्योका त्याग तो कर ही देना चाहिये, उसमें अधिक सोचने-विचारने की जरूरत नहीं है । सथा क्रमश: प्रपोजनभूतका त्याग करना भो अनिवार्य है तभी मानव जीवन पानेकी सार्थकता है। पुरुषार्थी जी करना चाहे सो कर सकता है। जब कठिनसे-कठिन मोक्षको साधना कर सकता है तब और क्या कठिन है, जिसके लिए वह कायरता दिखलावे ? नहीं, अपनो शक्तिको देखकर बराबर आगे बढ़ना चाहये, प्रमाद नहीं करना चाहिए और वह भी आत्मकल्याणके कार्य करने में, न कि संसारके कार्यों में, तभी वह पुरुषार्थी काहा जावेगा अन्यथा नहीं, यह ध्यान में रचना चाहिये । किम्बहुना ।।१०६१ आचार्य १४ । कुशील ( अब्रह्म ) पापका स्वरूप बताते हैं ।
एकदेश सुशीलको पालनेके लिए यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्रसद्भावात् ॥१०७॥
दरागके होनेसे जो मैथुनकर्म जीच करता । है 'अब्रह्मा' नाम उसका अरु नाम कुशीस वही करता ।। हिंसा उसमें होत निरन्तर द्रव्यमाव दोई प्राणों की ।
कारण मुख्य प्रमाद कहा है सब पापों के स्थानों की ।।१०७॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत् वेदरागयोगात मैथुनमभिधीयते सत् अवझ] को वेदरूप रामके निमित्तसे कामसेवनका भाव या क्रिया की जाती है, उसको 'अबहा' या कुशील कहते हैं। और [ तत्र सर्वत्रवधस्य सामान हिस्सा अवतरति ] उस मैथुनमें सम्मूच्र्छनादि जीवोंका घात होनेसे हिंसा पाप लगता है, यह हानि है अतएव यह स्यात्य है ।।१०७॥
भावार्थ-जितने कषाय व परिग्रह ( विषय )के भेद हैं वे सभी पायरूप हैं और पापके कारण हैं, अतएव आचार्योंने उन्हींको त्याग करनेका उपदेश दिया है व त्याग करवाया है । उसीका पृथक-पृथक् रूपसे स्पष्टीकरण पाँच पापोंके प्रकरणमें किया जा रहा है। अब्रह्म या कुसोल
१, प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धाभवोऽलसः, कषायभरगौरबादलसता प्रमादो यतः । ___अतः स्वरसनिर्भरे नियमित: स्वभावे भवन्, मुमिः परमशुद्धता प्रमति मुच्यते वाचिरात् ॥१९०।---कलक्ष्य २. मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनम् । दो प्राणियों ( स्त्री-पुरुष ) की परस्पर रमण करनेकी इच्छा या क्रियाको
मैथुन या कुशील कहते है । कुशील भावरूप व द्रश्यरूप दोनों तरहका होता है। ३, ब्रह्मचर्यका अभाव । पूर्ण स्वभावकी कमी ।