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ear भी पाप ही है (अशुद्धता है क्योंकि उसमें द्रव्य हिंसा ( योनिगत असंख्यात सम्मूच्छेन जीवोंका विघात) होती है तथा परिणाम या भाव खराब (प्रमादरूप तत्रि कषाय ) होने से आत्मा के भावप्राणका भो घात होता है ऐसी स्थितिमें उन्यथा हिंसाका होना अनिवार्य है, अतः यह पाय भी स्याज्य है | वेद तीन तरह के होते हैं- ( १ ) पुरुषवेद, ( २ ) स्त्रीवेद, ( ३ ) नपुंसकवेद | ये तीनों ही रागकषायमें शामिल हैं । इनके द्रव्य व भावके दो भेद होते हैं । द्रव्यवेद ( लिंग ) नामक आश्रित है वह शरीरमें आकारादिकी रचनारूप है तथा भाववेद कषाय या विकारीभावरूप है। दोनोंका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । भाववेद निमित्तसे ( भाववेदरूप विकारी परिणामसे ) कायवचनादिमें क्रिया ( हरकत ) होती है तथा उसके लिए जीव निमित्त मिलता है । Earsयोग, कायप्रयोग आदि करता है और उसके अंगोपांग चलाता है तथा मेल मिलाता है इत्यादि । स्त्रीके गुह्य स्थानों में (योनि, काँख, कुत्र आदि में असंख्याते जीव स्वतः सम्मूच्र्छन जन्मवाले होते रहते हैं अतः परपर से वे सब मर जाते हैं जिससे द्रव्यहिया होती है, surf uraat are मैथुन कर्म है अतः वह त्याज्य है ।
aah विषयमें विशेषता
द्रव्यकर्म, भावकर्म की तरह, वेदनाम नोकषायके भी द्रव्य भाव ये दो भेद हैं या माने जा जा सकते हैं |
( १ ) द्रव्यवेद, नोकषायरूप पुद्गलका पिण्ड है, जिसके उदय होनेपर जीवके भाव खराब होते हैं । अतः वह द्रव्यवेद है ।
(२) भाववेद, स्त्री-पुरुषके खोटे भावोंका होना है, जिनसे क्रिया की जाती है । उन परिणामोंको भाववेद कहते हैं ।
(३) नामकर्मके उदयसे होनेवाली पुद्गलकी रचना, लिंग या चिह्न कहलाती है वह आकार-प्रकार, जिससे स्त्री-पुरुष नपुंसककी पहिचान होती है, ऐसा भेद समझना चाहिये ।
नोट-स्त्रीवेदके उदय में स्त्रीके जैसे भाव होते हैं—अर्थात् पुरुषसे रमण करनेके भाव होते हैं। पुरुषवेदके उदयमें पुरुषके जैसे भाव होते हैं । अर्थात् स्त्रीसे रमने के भाव होते हैं। नपुंसक areshanagar जैसे भाव होते हैं, उभयसे रमनेके इत्यादि ।
आगे आचार्य उसी द्रव्यहिंसाकी पुष्टि उदाहरण देकर करते हैं ।
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । arat जीवा योनौ मैथुने तद्वत् ॥ १०८ ॥
हिंस्यन्ते
पद्य
तिलनालीके अन्दर जैसे के पड़ने से । तिलका क्षय हो जात, क्षण आपसमाहिं रगड़ने से || उसी तरह योनि के भीतर रहनेवाले जीवोंका | are होश हैं मैथुनमें जब अंग रगता दोनोंका ॥ ३०८ ॥