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पुरुषार्थसिधुपाय पापरूप विकारी भावोंका त्यागना ( पृथक करना ) श्रावकके लिये अत्यावश्यक है। इस ग्रन्थ द्वारा धावकके माध्यमसे उत्सर्ग ( शुद्ध-एकाकी) मार्गको भूमिका आचार्य महाराजने तैयार की है ऐसा आभास होता है अतएव वह कर्तव्य है किम्बहुना।"
नोट -इस श्लोकमें दो अपि शब्द लिखे हैं, उनमेसे एकका अर्थ 'और' तथा दूसरेका अर्थ 'अथवा' लेग धारिये । आचार्य आगे असत्यके मूलकारणको स्पष्ट करते हुए शंकाका समाधान करते हैं ।
हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ॥१०॥
पद्य
सकले सूर बचोका कारण मुख्य प्रमाद कहा प्रभुने । बिना प्रमाद त्याग बचनादिक नहीं असत्य होत सुमे ।। उपदेशादिक समय गुरुजन वचन अरुचिकर कहते हैं।
जिनसे होता स्वाधिजनोंको खेद, न अनून लहते है ।।५००॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सकलवितवचनानाम् प्रमसोगे हेतौ निर्दिष्टे सति ] सब तरह के असत्य ( झूठ) वचनोंका मूलकारण ( हेतु ) एक 'प्रमत्तयोम' ही है, दूसरा कोई नहीं है। अतएव [ हेयानुष्टानादेः अनुवदनं असत्यं न भवति ] हेय व उपादेयका उपदेश ( शिक्षा ) देते समय किसी जीवको स्वार्थको क्षति होनेसे यदि दुःस्त्र पहुंचे तो भी असत्य बोलना नहीं माना जाता न उसका पाप लगता है ।।१०॥
भावार्थ-विना प्रमादयोगके किसी भी जीवको क्रिमा मात्रसे पापका बंध नहीं होता। यदि इरादा दुःख पहुं या सतानेका हो तो अवश्य ही पापबंध होगा, चाहे वह बाह्यक्रिया ( उद्यम ) वैसो करे या न करे। लेकिन चिना इरादा या संकल्पके, कदाचित् दुःख पहुँचनेके लायक ( योग्य ) बाह्यक्रिया (शरोरादिको प्रवृत्ति) हो भी जाय तो भी पापका बंध या हिंसा नहीं होती, कारणकि परिणाम ( भाव) ही पुण्यपाप व मोक्षके कारण होते हैं, यह बात कई बार कही गई है। फलतः प्रमादयोग ( कषायसहित योगप्रवृत्ति ) का दूर करना निकालना सर्वोपरि है ।।१०।।
मोट---यहाँ पर यह शंका मिट जाती है या नहीं हो सकती कि 'साधु मुनि जोवोंके
१. अनवरतसमन्तभ्यते सापराधः, स्पेशालि निरपराधो बंधनं नैव जातु ।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन सापरावी भवति निरपराश्वः साधुः शुद्धात्मसेवी ।।१८७11 कलश २. स्वप्न में ---रंचमात्र ।