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पुरुषार्थसिक्युपाय नहीं कर सकता तो उसका यह कर्तव्य है कि बह प्रयोजनभूत कार्यों ( व्यापारादि ) को छोड़कर जो अप्रयोजनभूत कार्य ( साधन ) हैं उनमें कभी झूठ न बोलें, ऐसा करने से उनके एकदेशवत हो सकता या पल सकता है तथा वे अणुव्रती--मोक्षमार्गी बन सकते हैं एवं कालान्तर में वे मोक्ष जा सकते हैं अथवा परंपरया ( व्यबहारनपसे ) बे मोक्ष जा सकते है ऐसा समझना चाहिये । इसमें भूल या प्रमाद करना अज्ञानताहै, जीवन के महत्त्वको नहीं समझना है। पद और योग्यता के अनुसार पाप या बुराईका त्याग करना अनिवार्य है। व्रती पुरुष प्रयोजनभूत कार्यों में यदि पूर्ण पापका त्याग नहीं कर सकता है तो भी उसका लक्ष्य सदैव पूर्ण पापोंके त्याग करनेका अवश्य रहता है उन्हें बह हेग ही समझता है अमाप नहीं जाः जैसाकि मियादष्टि समझता है। जैनशासनमें तो जब सम्यग्दृष्टि अत्तोका भी लक्ष्य पूर्ण वोसरागताको ओर रहता है, वह तमाम संसार शरीरादिस विरक्त रहता है तब बतौकी बात तो निराली ही है किम्बहुना पदके अनुसार सभीका कर्तव्य निश्चित है अस्तु । ध्यान देना चाहिये । यद्यपि आशिक-त्याग या प्रवृत्ति 'अपवाद मार्ग' है ( अशुद्ध मार्ग है या व्यवहार मार्ग है ) उससे साक्षात् मुक्ति नहीं हो सकती जब तक कि वह 'उत्सर्ग मार्ग पूर्ण वीतरागता रूप या पूर्ण निवृत्तिरूप या निश्चय मोक्ष मार्गरूप नहीं हो जाता यह नियम है। अणुशतरूप या श्रावकके १२ वतरूप मार्ग 'अपवाद मार्ग' या प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार मोक्ष मार्ग है, उसमें सरागता व बोत्तरागता दोनोंका मिश्रण रहता है अतः वह शुद्ध मार्ग नहीं है, उससे मुक्ति नहीं हो सकती। उसको उपचारसे मोक्षमार्म आगममें कहा गया है। सम्यग्दृष्टि अवती श्रावक भी जैनधर्मी या अहिंसाधी कहलाता है कारण कि वह अप्रयोजनभूत हिसा आदि का त्यागी रहता है तथा उसे वह हेय समझता है, उसके होने में वह विषाद ( दुःस्स पश्चात्ताप ) करता है--विवेक रखता है इत्यादि । अतएव वह भी अहिंसा धर्मका कथंचित् ( आंशिक ) पालनेवाला है।
निष्कर्ष-त्याग दो तरहका होता है (१) सर्वदेश त्याग या सकलदेश त्याग ( उत्सर्गरूप ) (२) एकदेश या विकलदेश त्याग ( अपवादरूप थोड़ा त्याग ) । सर्वदेश त्याग करनेको सकलात या महायत कहते हैं और एकदेश त्याग करनेको अणुव्रत या देशवत कहते हैं, महावत या सकलप्रतमें पूर्ण वीतरागता होना चाहिए और देशव्रत या अणुव्रतमें शुभराग होना चाहिये। ( अशुभ राग नहीं होना चाहिए ) तभी उनका सार्थक नाम हो सकता है, अन्यथा नहीं। उसके विना वैसा कहना उपचारमात्र है अस्तु । उसके भेद ( फरक ) को समझना और तदनुसार चलना ( करना) नितान्त आवश्यक है। समझनेपर ही सारा दारोमदार है, विना समझे सब निष्फल है, अर्थात सम्यग्ज्ञान हुए विना कुचारित्र कहलाता है जिसका फल उत्कृष्ट नहीं होता। कषायोंकी मन्दतामें भी वैसा हो सकता है, और तीव्रता भी हो सकता है, किन्तु उससे अभीष्ट सिद्धि नहीं होतो, यह तात्पर्य है, अतएव वह व्यर्थका बोझा जैसा है ॥ १०१ ॥ सत्याणुवतका स्वरूप कहने के पश्चात्
(३) चौर्य पाप प्रकरणमें--- आगे अचौर्य अणुव्रत ( धर्मका ) स्वरूप बताया जाता है।