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अहिंसाधन परमोपकारी गुरुकी उपासना कर्तव्य है, ( उपसंहार कथन ) आगे मलको भूलको निकालनेवाले नयभेदके विशेष ज्ञाता और जैनशासनके पूर्ण रहस्य के जानकार एवं तदनुसार प्रवृत्ति करनेवाले उपकारी सुगुरुको उपासना । सेवा, यावृत्य आदि ) का उपदेश तथा उससे होनेवाला लाभ बताया जाता है।
आचार्य-(१) अहिंसा धर्मधारीको योग्यता बतलाते हैंको मार गिराति मोर गमभंगविशारदानुपास्य गुरून् । विदितजिनमतरहस्यः श्रयाहिंसां विशुद्धमतिः ॥१०॥
जिसने नय प्रमाणके ज्ञाता मुरुकी सेवा कीमा है। उनसे ज्ञान यथार्थ प्रासकर उसमें दृष्टि दीनी है।। हिंसा मुख मोड़ अहिंसाधूप में रुचिको ठानी है।
वह है मीच विशुदमतिः महीं होता कभी अज्ञानी है ॥५.७ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि नयभंगधिशारदान गुरून् 'उपास्थ ] जिसने नयों के भेदप्रभेदोंके कुशल ज्ञाता ( मर्मज्ञ ) सद्गुरुओंको सेवा-सुश्रूषा करके या उनकी शरणमें रहकर [विदितजिनमसरहस्यः ] अच्छी तरहसे जैनमत या जिनधर्मका रहस्य ( सार या सिद्धान्त ) को जान लिया हो और फलस्वरूप [ अहिंसां श्रयन् ] परम अहिंसा धर्मको पालने लगा हो ऐसा का विशुमति: नाम मोह विशति ] कौन निर्मलबुद्धिका धारक ( सम्यग्दृष्टि विवेकी थावक ) होगा जो यथार्थ में जान-बूझकर मिथ्याधर्मरूप मोह या हिंसाको, धर्म मानेगा? अर्थात् नहीं मान सकता, अथवा पाखण्डी गुरुओंके तर्क-वितर्क द्वारा बताये हुए ( उपर्युक्त ) कुधर्म में वह श्रद्धा या प्रवृत्ति नहीं कर सकता अतएव समझदारको कभी भुलावे में नहीं आ जाना चाहिये यह उपसंहार है ।।२०।।
भावार्थ-परीक्षक सच्चे गुरुके चेला ( शिष्य ) कभी भी सूटे पाखण्डियोंके तर्क रूप बहकाव या झांसे में नहीं आ सकते । चाहे वे कितना भी इन्द्रजाल था प्रलोभन दिखलावें, उनका भण्डा-फोड़ हो ही जाता है यह नियम है ! अतएव जैनधर्म में सदगुरु ही 'तारन तरन जहाज' रूप माने जाते हैं। वे सद्गुरु वीलरागी निष्परिग्रही दिगम्बर जैनाचार्य ( गणधारादि ) ही होते हैं। घे ही मोक्षमार्गके या आत्मोन्नति पथप्रदर्शक कहलाते हैं। उनका स्थान उपकारकी दृष्टिसे अति .
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१. भूल या अज्ञान । २. सारशि-लथ्य। ३. निर्मलसिधारी पक्षपातरहित सभ्यग्ज्ञानी अर्थात् मोह या अशान ( भ्रम ) से रहित । ४. धर्म । ५. भलनेवाला...-हिंसाको धर्म माननेवाला।
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