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अहिंसाणुगत अनमोल है, उसका सदैव सदुपयोग करना चाहिए, मूर्खतामें नहीं गवां देना चाहिए, यह सारांश है । तभी तो 'लोभ पापका बाप बखाना कहा गया है, सभी पाप लोभसे होते हैं इत्यादि । सिद्धान्त में जब तक लोभ कषाय सत्तामें रहती है ( १० दें गुणस्थान तक ) तबतक सभी घातियाकर्मो की पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है इत्यादि ।
आगे वादीके 'परोपकाराय इदं शरीर' के गलत समझनेका खंडन किया जाता है----उससे धर्म नहीं होता । यथा---
दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामाक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि ||८९॥
दुर्चल शुल्क उदर वाला यति मोजमा माता दीखे । उसके खातिर मी महिं कोई अपना मांस देय चीखे ॥ आत्मघास परमात किये से कमो धर्म महिं होता है।
हिंसा पाप बड़ा है सब में स्यागे धर्म अ होता है ।।४।। अन्धय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ पुरस्तादशनाय क्षामकृति पर भायातम् स्ष्टा ] अपने आगे ( सामने ) यदि कोई ऐसा आदमो जिसका उदर ( पेट ) दुर्बल और धुसा हुआ हो, भोजनके लिए आता हुआ दिखे तो [ नि मांसदानरमसात् आमाsपि न आलभनीयः ] उसको अपना शरीर काटकर मांसका भोजन नहीं देना चाहिये, क्योंकि आत्मघात महापाप है तथा संक्लेशता या दुःख होनेसे पापका बन्ध होता है--परभव बिगड़ता है ।।८।।
भावार्थ-शास्त्रोंमें आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान या पात्रदान, समदान, अन्वयदान, दयादान ऐसे चार दान लिखे हैं उनमें मांसदान नहीं लिखा, अतः वह निषिद्ध है। उनको पुष्टि करना मानी आगमका अनादर करना है, उत्सूत्र चलना है। ऐसा मिथ्यादष्टि जीव संसारसे पार नहीं हो सकता, प्रत्युत संसारमें अपनी जड़ें मजबूत करता है-लम्बी फैलाता है। मांसा मदिराभक्षो जीव ही भोजनार्थ दुसरोंसे मांस-मदिराको याचना करते हैं...वे विषय-कषाय रूप पापके पोषक होनेसे कारण विपर्ययरूप हैं-विपरोत कारण हैं अत: उनके सेवकों या भक्तोंको अच्छा फल नहीं मिल सकता अर्थात् विपरोत फल ही मिलेगा, जो नरक विगोदादिकी प्राप्तिरूप होगा। यह नियम है कि जैसा कारण होता है वैसा हो कार्य या फल भो होता है अन्यथा नहीं। पात्र तीन तरहके होते हैं 1 यथा---१ सुपात्र, २ कुपात्र, ३ अपात्र । सुपायके तीन भेद----१ उत्तम
१. दुर्बल घुसा हुआ उदर वाला। २. घातना । . ३. संक्लेशता दुःख करे, उठावं, चिल्ला, इत्यादि ।