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पुरुषार्थसिद्धपा
सुपात्र, २ मध्यम सुपात्र, ३ जघन्य सुपात्र । इन सबका स्वरूप आगे यथावसर बताया जायेगा । परन्तु पाखण्डी विषयकषायो सब कुपात्र या अपात्र ही हैं ऐसा समझना चाहिए, उनको सेवा सुश्रूषा करना हितकर नहीं है- मिथ्यात्वसूचक है, किम्बहुना ? परोपकार व स्वोपकार समझे बिना गलती होती | स्वोपकार करना मुख्य है-अपने आत्माको संसारसे बचाना, विकारी भाव न करना स्वोपकार हैं, अस्तु ।
उपसंहार (जैनमतानुसार )
इस प्रकरण में ११ श्लोकों द्वारा अर्थात् ७९ से ८९ तक हिसाको धर्म मानने व कहने (उपदेश देने वालोंका खण्डन अच्छी तरह से किया गया है । यद्यपि ग्रन्थकार श्री १०८ अमृतचन्द्राचाके सामने साक्षात् कोई उपस्थित नहीं थे किन्तु उनके मसका प्रचार जरूर था व उनके अनुयायी लोग भी थे । उनके सिद्धान्तका खण्डन करनेका अर्थ ( प्रयोजन ) संसारी जीवोंकी मिश्रयाधारणा मिटाने एवं सुमार्गपर लानेका रहा है जो उनका शुभोपयोग था - कल्याणकारी भावना थी जो उस साधक या मध्यम पदमें अर्थात् मध्यम सम्यग्दर्शनवाले, मध्यमसम्यग्दृष्टि ( पात्र ) की rater उचित ही थी । अन्तरआत्मज्ञानी अथवा आत्माका और परका अन्तर अर्थात् भेद, समझनेवाले जीव अन्तर आत्मज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि कहलाते है। और वे सभी न्यायाधीश व जज होते हैं । परन्तु उनमें वर्ग मेद होता है अर्थात् ३ दर्जा होते हैं । लेकिन मूल ( सम्यग्दर्शन ) सभीका एक-सा रहता है ( भेदज्ञानका एक-सा होना सभीके रहता है--ज्ञान व श्रद्धान सभीका एक-सा रहता है) । यदि कदाचित् उसमें भेद हो तो बहु सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में वर्गभेद, परिग्रह और उपयोगकी अपेक्षा से है व मानना चाहिये और वह इस प्रकार है ।
यथा—
( १ ) उत्तम अन्तरात्मा - अन्तरंग परिग्रह व बहिरंग परिग्रह दोनोंसे रहित पूर्णं शुद्धोपयोगी मुनि १२ वे गुणस्थानवाले कहलाते हैं ।
( २ ) मध्यम अन्तरात्मा --- सिर्फ अन्तरंग परिग्रह सहित शुभोपयोगी कहलाते हैं। इनके बाह्यपरिग्रह नहीं रहता । ५ में गुणस्थानसे ११ वें तक वाले त्यागो ।
( ३ ) जधन्य अन्तरात्मा - दोनों प्रकार के परिग्रह सहित अशुभोपयोगी या कदाचित् शुभीपयोगी भी कहलाते हैं । परन्तु सम्यग्दर्शनका आंशिक शुद्धोपयोगका होना अनिवार्य सभी के लिए है | अतएव जघन्य सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवाला भी सुपात्र है, चाहे वह उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक, कोई भो सम्यग्दृष्टि हो । हाँ, स्वरूपाचरणचारित्र अथवा सम्यक्त्वाचरण में परिवर्तन अर्थात् विचलित जल्दी र होना, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में होता है- बहुत समय तक वह स्वरूपमें स्थिर नहीं रह सकता, यह त्रुटि ही उसमें पाई जाती है । उसी त्रुटिका नाम, चल-मल- अगाढ़ दोष है । उसका सम्बन्ध सिर्फ ( खास ) ज्ञानोपयोगको स्थिरता न रहने से है, श्रद्धाको अस्थिरतासे नहीं है क्योंकि श्रद्धा देव सम्यग्दर्शनके साथ स्थिर ( अचल ) रहती है, यह निष्कर्ष है, इसको समझना चाहिये। किम्बहुना ।