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पुरुषार्थपा
पा
जो वस्तु परक्षेत्र काल भर भावों से महि यहाँ रहे । उम्मको कक्षमा इसी जगह वह विद्यमान है झूठ कहे ॥ जैसे अटके न होनेपर वट है यहाँ यही कहना | वह असस्य हैं नम्बर दोका, नहिं विश्वास कभी करना ||९३३
अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ हि यत्र परक्षेत्रकालभावैः वस्तुरूपं असदपि ] वास्तव में जहाँपर परक्षेत्रकालभाव में रहनेवालो वस्तु या परक्षेत्रकालभावसहित वस्तु न हो फिर भी ( अभाव में ) [ तद् (भाष्य] यहां पर विशिष्ट वस्तुका अस्तित्व या मोजूद होना कहना या कहा जाय [ तन् द्वितीयं ] उसको नम्बर २का महा असल्य समझना चाहिये । [ यथा अस्मिन् घटः अस्ति ] जैसे कि यहाँपर घट मौजूद है यह दृष्टान्त है । यह असत्का आलारूप महा असत्य है || ९३ ॥
भावार्थ - अणुव्रती या महाव्रती मनुष्य उक्त प्रकारका महा लोक निद्य असत्य नहीं बोल सकता साधारणतः छोटे-छोटे असत्य बोलने में आ सकते हैं । यद्यपि उन्हें वे स्वेच्छा से नहीं बोलमा चाहते, अरुचि रखते हैं किन्तु कषायके देगमें विवश होकर ( परवशतामें ) उन्हें बोलना पड़ता है जिसका वे दुःख मनाते हैं, हर्ष नहीं मनाते । तथा उनके मेटने या त्यागनेका हमेशा प्रयत्न करते हैं इत्यादि विचित्र दशा होती है । व्रती पुरुष सदैव विषयकामोंसे उदासीन या विरक्त रहते हैं उनको वे विष समान हानिकारक ( स्वभावभावरूप भावप्राणघातक ) समझते हैं और यथा शक्ति उनका सम्बन्ध विच्छेद भी करते हैं। उनका लक्ष्य अशुद्ध पर्यायको हटाना रहता है । फिर भी बुद्धिपूर्वक वह पहिले मोटे-मोटे दोषों ( पापों-अपराधों ) को निकालता है पश्चात् छोटोको दूर करता है । लेकिन व्रत धारण करनेका क्रम उसका विपरीत रहता है अर्थात् पहिले वह अभ्यास रूपसे छोटा व्रत ( प्रतिज्ञा ) धारण करता है और पश्चात् बड़ा व्रत ( महाव्रत ) धारण करता है, ऐसी जैन मतकी आम्नाय है, उसीके अनुसार वह चलता है, जिससे वह भ्रष्ट नहीं होता इत्यादि, यही विवेकबुद्धिका फल है ॥९३॥
आचार्य असत्यका तीसरा भेद बतलाते हैं !
अन्यथा या विपरीतरूप महा असत्य
वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीय विज्ञेय गौरिति यथाश्वः ॥९४॥
पथ
मिज स्वरूपसे सत्वस्तुको परस्वरूप कह देना जो । यह असत्य तीजे नम्बरका बैठको घोड़ा कहना जो ॥ as rare है ा लोकमें धोखा देना कहलाता | दगाबाज अ मायाचारी कंपटी और गिना जाता ||२
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