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पुरुषार्थसिधुपाय बड़ी दुर्लभ है एवं विचारणीय व करणीय भी है, किम्बहुना। असत्यादिक चारों पापोंका त्याग सिर्फ एक मूल 'अहिंसा धर्म' को रक्षा और प्राप्ति के लिए किया जाता है, यही मुख्य प्रयोजन उनके त्यागफा है, उसे आरमशुद्धि होती है अथ लक्ष्य पूरा होता है अस्तु ।। ६५ ।।
उपसंहार कथन अनेकान्तके भेद अनेको निश्चय व्यवहार भी होते । स्वपर चतुष्टय योजित करके सस्य असत्य रूप होते ॥ वचन अगोचा पूर्ण वस्तु है खन्न-खण्ड बसलाता है। अनेकान्तका नाम सुमरा, स्याद्वाद कहलाता है ।। बचन अनेको तरह होत हैं, उनमें जो हितकारी हैं। .
उनहीका अवलम्बन करना, शेष सभी परिहारी हैं। आगे आचार्य गहित बचन ( शब्द या वाक्य ) का स्वरूप बताते हैं।
पैशुन्यहास्यगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च | अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गर्हितं गदितम् ॥१६॥
पद्य चुगली हास्य कठोर बचन अरु मिथ्या गपशपरूप कथन । . इसी तरह उत्सूत्र कथन भी.---सगरे हैं माहिस्य वचन ।। अतः मुठसे बचनेवाले गहित बच्चन न कहते हैं।
गर्हित बन सन्चरनेवाले नहीं पापसे डरते हैं ॥१६॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ यत् पैशून्यहास्यगर्भ ककशं असमंजसं च प्रलषितं अन्यदपि उत्सू] जो वचन या वार्तालाप चुगली रूप हो ( शिकायत-निन्दाल्प हो ) हंसी मजाफरूप हो, कठोर बोल-चालरूप ( मर्मभेदी ) हो, मिथ्या या बनावटी हो, बकवाद ( गपशप निष्प्रयोजन ) रूप हो, तथा आगम या मर्यादाके विरुद्ध हो, [ तत्सर्व गहितं गदिवम् ] उस सब बातालाएको. गहितवचन नामसे कहा जाता है जो चौथे असत्यका पहिला भेद है ।।२६॥ ___भावार्थ-उपर्युक चर्चा या बातचीत सब मनोविकारसे अर्थात् कषायके वेगमें हुआ करती है। उस समय जीव विवेकहोन जैसा मदान्ध हो जाता है, जो सत्य ( स्वभाव ) के विपरीत होनेसे अपराधरूप ( पाप) माना जाता है, यह रहस्य है । वस्तु या पदार्थ सब सत्यरूप ( स्वभावस्थितधर्मस्वरूप ) हैं असत्य या विभाव या अधर्मरूप, नहीं हैं। ऐसी स्थिति में संसारी जीव जब कषायमय विभाव भावों सहित होता है सब वह स्वभाव भावमें या वस्तु स्वरूपसे विचलित होनेके कारण असत्यवादी बराबर कहा या माना जाता है। फलतः विकार सर्वथा त्याज्य है, जो स्वरूपसे ही पलित कर देवे; किम्बहुना । अपराध छूटे बिना मुक्ति नहीं होती, यह नियम है । लोकाचारमें भी