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भहिसाणुम्रप्त हिंसामी महिं धर्म होता, वह अहिमामय सदा। खान
हमसे कर्मा नहिं जाब इसना, मूर्ख बनता है सदा ।।|| अन्वय अर्थ-जिनका यह मत है अर्थात् ख्याल है कि भगवदो सूक्ष्मः ] धर्मका स्वामो भगवान् । ईश्वर ) है अर्थात् धर्मका कर्ता और फलदाता भगवान हो है, दूसरा कोई नहीं है और वही धर्मके स्वरूपको जान सकता है क्योंकि वह इन्द्रियज्ञानके गोचर नहीं है अर्थात हमलोग इन्द्रिय ज्ञानसे स्थल पदार्थो को जान सकते हैं....धर्म जैसे सूक्ष्म पदार्थको नहीं जान सकते अताव [ धर्मार्थ हिंसने दोषी नाम्ति ] उस धर्मकी प्राप्ति और ज्ञप्ति के लिए जीवहिंसा करने में कोई दोष । अपराध या अधर्म । नाहीं लगतः, काया कि दो नातिर धर्म के लामो भगवान्को प्रसन्न करनेके लिए यही उत्तम उपाय' है, ऐसा सबै अज्ञानी जीव उठाता है, उसका खण्डन इस प्रकार है कि [ इति धर्ममुग्धहदगः भूत्वा जातु शरीरिणो न हिस्याः! धर्मके सम्बन्धमें या धर्मके स्वरूप में तर्कवालेके अनुसार भूल नहीं करना चाहिए। और मूर्ख बनकर कभी भी जोबोंको हिंसा धर्मके खातिर नहीं करना चाहिए, यह समझवारो है-बुद्धिमत्ता है। धर्मका स्वामी अकेला भगवान् नहीं है, सभी जीव हैं और उसका फल देना भी अकेले भगवान के ही हाथ ( अधीन ) में नहीं है अपितु सभी जीव अपनों अपनी करनीके अनुसार फल पाते हैं इत्यादि । अतएव धर्मका स्वरूप अहिंसामय ही है, हिंसामय नहीं है ॥७२॥
भावार्थ-धर्म का स्वरूप हमेशा एक-सा रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता यह निश्चयको बात है, किन्तु ज्ञानी और अज्ञानी ( सम्पष्टि, भिथ्यादष्टि) जीत्रोंके बुद्धिके फेरसे धर्मके स्वरूपमें भूल व भ्रम हो रहा है। इसका खुलासा पेश्तर इलोक नं० ५८ में विस्तारके साथ किया गया है, उसको समझना। फिर भी संक्षेरूपमें यहाँ भी लिखा गया है। संसारमें अनेक मत हैं कोई ईश्वरवादी हैं ( भगवद्धर्मी हैं ) कोई अनोश्वरवादी अर्थात् स्वतन्त्र वस्तुवादी हैं। सथा कोई अल्पज्ञानी रागोद्वेषो, प्रमाणनयके स्वरूप व भेदोंको नहीं जाननेवाले हैं, कोई अल्पज्ञानी होकर भी नयप्रमाणके यथार्थ स्वरूप व भेदोंको जाननेवाले हैं । ऐसी स्थिथिमें--पदार्थव्यवस्था, भिन्न २ प्रकार उन्होंने मानी व बतलाई है। तभी तो कोई "हिंसाको धर्म मानते हैं ३ कोई 'अहिंसाको धर्म मानते व कहते हैं। कोई भक्ति या शुभराग अथवा धर्मानुराग (परोपकारादि ) से मुक्ति मानते हैं। और कोई शुभराग या भक्तिरूप धर्मानुरागसे रहित 'शुद्धबीतरागता' से मुक्ति मानते हैं। भन्सिसे मुक्ति मानने वाले निश्चय व्यवहारनय' से अनभिज्ञ हैं अतः वैसा कहते हैं और वीतरागतासे मुक्ति माननेवाले निश्चय व्यवहारनय के ज्ञाता है अतएव वैसा कहते हैं । अर्थात् निश्चय नयसे चौतरागता ही मुक्तिका कारण ( मोजमार्ग ) है क्योंकि रागद्वेषादिके पूर्ण छूटनेपर ही मोक्ष प्राप्त होता है यह नियम है । और व्यवहारनयसे "भक्ति से मुक्ति होती है' यह कहना ठोक है, परन्तु
१. यज्ञार्थ पशवः स्रष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञो हि भूर्त्य सन्षां तस्याद्यजे वधोऽवषः ।। यह उनके यहां लिखा है जो युक्त नहीं हैं।