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पुरुषार्थसिद्धधुपाय यह कथन उपचाररूप असत्य है क्योंकि उससे बन्ध होता है ऐसा समझना चाहिये । परम्परयाका अर्थ व्यवहारलयकी अपेक्षा होता है. अर्थात् पर जो व्यवहार, उसका पर अर्थात् आश्रय लेनेपर ( उसकी गला करनेपर ; पोगमा मुनिक मारग माना जा सकता है ।
दुसरा अर्थ पर जो व्यवहार उसको पर अर्थात् दूर कर देनेपर अर्थात् परका आश्रय छोड़कर निजका आश्रय लेनेपर ( स्वाधीनतारूप शुद्धोपयोगसे ) मोक्ष होता है इत्यादि सारांश है । अर्थात् जब शुभोपयोग ( भक्ति आदि ) बदलकर शुद्धोपयोगरूप परिणमन करता है तब मुक्ति होती है यह तात्पर्य है।
'डीयो और जीने दो' यह उदार सिद्धान्त है। 'ओ हिंस्यात् सर्वभूतानि' यह वेद वाक्य है।
'श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' -महाभारत वाक्य उक्त उद्धरणोंसे हिंसा करना 'धर्म' नहीं माना जा सकता यह निश्चय है ।
विशेषार्थ-(शंका समाधान द्वारा निर्धार) प्रश्न-उक्त श्लोकमें यह कहा है कि 'धमार्थ हिंसा करने में कोई दोष या अपराध (पाप) नहीं होता अर्थात बह जायज है न्यायके अनकल है. कर सकता है। इसका खण्डन नहीं कि जा सकता ? कारणकि जैन लोग ( अहिंसा धर्मवाले ) भी तो घर्भके निमित्त बड़े २ मन्दिर बनवाते हैं, गजरथ चलाते हैं, धर्मशालाएं बनवाते हैं, सम्मेलन या संघ निकालकर तीर्थयात्रा करते हैं भोज देते हैं इत्यादि । जैन गृहस्थ हमेशा उक्त कार्य करते रहते हैं और जैन साधु भी चतुर्विध संघ मुनि, आर्यिका, श्रावक, धाविका ) तयार करते हैं, धर्मोपदेश देते हैं देशमें पैदल विहार करते हैं उसमें हिंसा होतो है जीव मरते हैं इत्यादि । यह सब धर्मप्रभावना या प्रचारके लिए ही तो है न? फिर 'धर्मके निमित्त हिंसा करनेका खण्डन जैन क्यों करते हैं ? वह भी तो धर्म है जबकि वह धर्म प्रचारके उद्देश्यसे की जाती है। उपर्युक्त उदाहरणोंसे यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि जैन लोग भी हिंसाको धर्म मानते हैं, समर्थन करते हैं। लेकिन दूसरोंका खण्डन करते हैं यह विचित्रता है--आश्चर्य है अस्तु ।
उक्त प्रश्न ( तर्क ) का उत्तर यह है कि दोनोंके उद्देश्यमें अन्तर ( फर्क ) है जैन लोग, हिंसा करके धर्म नहीं मानते अर्थात् पेस्तरसे ही 'अमुक जोवको मारनेसे धर्म प्राप्त होगा या हो जायगा' ऐसा इरादा या संकल्प करके उसे नहीं मारते किन्तु अन्य लोग खासकर पेश्तर से यही इरादा कर लेते हैं कि यदि इस जीवको बलि दे दो जाय ( मार डाला जाय ) तो हमें अवश्य धर्म प्राप्त हो जायगा, कोई संशय नहीं है----धर्म की प्राप्ति होना निश्चित है इत्यादि । बस यही मान्यता गलत है ( असत्य है ) क्योंकि वह मारनेका संकल्प ही तो अधर्म व हिंसा है उससे उस संकल्प कर्ता ( मारक ) के भाव प्राणों ( स्वभाव भावों) का घात ( हिंसा ) पहिले ही हो : जाता है जो महा हिंसारूप है। फिर उसके पश्चात् उस संकल्पित जीवको मार डालनेसे द्रव्य हिंसा भी होती है। इस तरह भाव व द्रव्य दोनों तरहकी हिंसाका होना 'धर्म' कभी नहीं कहा जा सकता