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पुरुषार्थसिनापाथ बुरे कार्यका बुरा नतीजा होता है, यह समझकर हिंसाको धर्म कभी नहीं मानना चाहिये, उल्टी गंगा नहीं बहती 1 अहिंसा हो धर्म है व रहेगा, पापी जीव दूसरोंको नहीं तार सकते, न स्वयं, तर पाते हैं, जिनके हिंसा आदि पांच पाप व क्रोधादि चार कषाएँ मौजूद हैं इत्यादि सारांश है ।। ८२।।
आगे अतिथिदानकी सरह परोपकारके लिये भी हिंसा करना बुरा है, धर्म नहीं है, वर्जनीय है, यह बताया जाता है यथा---
रक्षा भवति बहूनामेकस्वास्थ जीवहरणेन । इति मत्वा कर्मव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्वानाम् ।। ८३ ।।
पद्य
हिंसक एक लील शातेले रक्षा की होती है। अत: भारना उपका उत्सम धर्मास भी होती है । ऐसी दुर्बुद्धीमें पड़कर नहीं मारना हिंसक जिय ।
जीव मार" से धर्म न होता, धर्म होस रक्षासे प्रिय ! ॥ ८॥ - अन्षय अर्थ---वादो कहता है कि एकस्यैव अस्य बहरणेन बहनो रक्षा मचति ] एक बड़े हिंसक जीवके मार डालने से बहुतसे छोटे जीवोंको रक्षा होती है जिससे परोपकार होता है व धर्मकी प्राप्ति होती है इत्यादि । इसका खंडन आचार्य करते हैं कि [ इति मत्वा हिंसमवाना हिंसनं न कम्यम् ] पूर्वोक्त कुशिक्षा या मिथ्या उपदेश मानकर हिंसक जीवोंकी हिंसा नहीं करना चाहिये वह खाली भुलावा देता है ।। ८३ ॥
भावार्थ----हिंसा पाप है जो हमेशा पाप ही रहता है जैसे विष सदेव विष ही रहता है, कभी अमल नहीं होता। इसलिये हिंसा करके परोपकाररूप धर्म महों हो सकता। वास्तवमें देखा व विचाग जाय तो परोपकार उसको अज्ञानता मिटानेसे होता है किन्तु अज्ञानता बढ़ानेसे नहीं होता, क्योंकि गुमराह करना महा अपकार माना गया है। क्या धर्म ( अहिंसारूप ) प्राप्तिके लिये हिसारूप अधर्म करना उचित उपाय है ? नहीं, तब हिंसक या अहिंसक किसी भी जीवका मारना कर्तव्य नहीं हैं..-बह तो अधर्म है अतएव उसको छोड़ देना ही हितकर है ऐसा समझना चाहिये। जीवोंको रक्षा या दया करना धर्म है किन्तु वह दया दो प्रकारकी होतो है ( १ ) स्वदया (२)
१. घात । २.. हिंसक-खूखार । ३. कुशिक्षा । ४. घात-हिंसा। ५. सम्बोधन-प्यारे ।। कोमलालाप)
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