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पुरुषार्थसिद्धयुपायं
चोरी -कुशील आदि पापकार्य करना बन्द कर देना चाहिये ऐसा सत्य उपदेश दिया गया है । सदाचार जोवनका मूलधन है, उसकी रक्षा करना प्राणीका प्रथम कर्तव्य है, अस्तु ।
विशेषार्थ - जो जीव ( कुगुरु ) यह कहता है कि बहुत जावोंको मारने खानेवालेको तुरन्त मार डालना चाहिए ताकि अन्य छोटे जीव बच जाँय और वह हिंसक भक्षक जीव आगेके पापोंसे छूट जाय, उसका भला हो जायगा, इत्यादि दयालुता बतलाता है वह मूर्ख परोपदेशी पक्या यह नहीं सोचता कि हमारे मिथ्या उपदेशसे जी हिंसक जीव मारे जायेंगे (शेर, तेन्दुआ वगैरह ) उनकी हिंसा से हमें पाप न लगेगा व हम बहुहिंसक सिद्ध न होंगे, जिसने उपदेश देकर उन सबको हिंसा करवाई है ? कारिका दोष हमें भी तो लगेगा ? ऐसी हालत में उक्त तर्कवादियोंका निराधार कोरा बकवास है और कुछ सारभूत नहीं है । वह 'दूसरे नसीहत खुदरा फजीहत की बात जैसी है, अतएव मान्य नहीं हो सकती वह उनके दिमागको सूझ व बीमारी है, अस्तु । कभी झूठा व्यामोह नहीं करना चाहिये, उससे हानि ही होती है। ज्ञानका या बुद्धिका प्रयोजन ( उद्देश्य ) feast प्राप्ति और अतिका परिहार (त्याग) करना है, इसको हमेशा ध्यानमें रखना चाहिये तभी बुद्धिमानी है अन्यथा पशुमें और उसमें कोई भेद नहीं समझना चाहिये, अस्तु ।
"अज्ञाननिवृत्तिः हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् " -- परीक्षामुख ( सूत्र नं० १ पञ्चम समुद्देश ) में पुष्टि की है '
इसी तथ्यको न समझकर वादी आगे और भी कहता है उसका खण्डन आचार्य करते हैं ।
यथा-...
बहुदुःखाः संज्ञेषिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासना पाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ||८५ ||
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great efeat ita arतसे दुःख उनका मिट जाता है। अत: मारमा उनको जल्दी दुःख न बढ़ने पाता है | ऐसी मिथ्या श्रवा करके जीव घात नहिं करना है।
करनी का फल मिल जीवको होनहार नहिं टलना है ||टप
अन्य अर्थ ----वादी कहता है कि [सु बहुदुःखमंशयिताः अचिरेण दुःखविद्धिसिं प्रयाति ] यदि अत्यन्त दुःखी दरिद्री प्राणियोंको मार डाला जाय तो वे तुरन्त दुःखोंसे छूट जाते हैं अर्थात्
१. बहुत दुःखिया जोब ।
२. मार डाले गये जीव ।
२. दुःख से छूटने के इच्छुक
४. दुर्वासना ( मिथ्या श्रद्धा ) रूपी तलवार ।
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