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अहिंसाणुमत परदया, दोनोंका जानना जरूरी है। स्वदया--विकारी भावीका ( अज्ञान, मिथ्यारव, कयायका ) हटानारूप, है परदया—अन्य एकेन्द्रियादि जीवोंको रक्षा करनारूप है। पदके अनुसार यथासम्भव दया धर्म पालना अनिवार्य है। अस्तु पापक्रियासे धर्म नहीं होता यह निश्चय है । वैसे तो दयाको धर्म कहना भी व्यवहार है, परन्तु वह शुभ या प्रशस्त व्यवहार है अतः कचित् कर्तव्य है ।।८३३
आगे.....करुणाबुद्धिसे भी अन्य जीवों को मारना अधर्म है, ऐसा कहकर हिंसाका त्याग आचार्य कराते हैं।
बहुमत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्पनुकम्पकत्सा सविसनीयाः शरीरिणो हिसः ।। ८४ ।।
पद्ध
बहीमों के बाती हिंसक यदि बडुकालो लीलेंगे। बहुत पाप उनको कामेगा, पापमुक्त नहिं होगे ।। अतः दयाकर उन्हें मारमा जल्दी पुण्य खे पाचंगे।
ऐसा दुष्ट विचार न करमा हिंसापाप लगावेंगे ॥४॥ अभ्यय अर्थ-वादी कहता है कि [ बहुसरवघातिमः अमी जीवन्तः गुस्पा उपायम्सि ] बहुतजोबोको मारने वाले प्राणी यदि बहुत समयतक जियेंगे तो वे महान् पाप उपार्जन ( पैदा ) करेंगेपापोंसे कभी छूटेंगे ही नहीं, अतएव दया या करणा करके उन्हें जल्दी मार डालना चाहिये, जिससे वे पापोंसे बच जावेंगे । इसका खंडन आचार्य करते हैं कि [ इति अनुकंपा कृत्वा हिंसा: परिण: म हिंसनीयाः ] पूर्वोक्त कथनपर विश्वास करके कभी भी हिंसक जीवोंको नहीं माना चाहिये, क्योंकि हिंसा करनेसे नया पापही लगता है--पाप छटता नहीं है यह नियम है। जैसे कि सूनका दाग और खून लगानेसे नहीं छूटता ( पुष्ट होता है-बढ़ता है)। अतएव किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करना चाहिये, पूर्वोक्त हिंसाका कथन असत्य व मिथ्या है---नैतिकताके भी विरुद्ध है ।। ८४ ॥
भावार्थ----सत्यको हमेशा विजय होती हैं, धर्म या पुण्यको जड़ पातालतक गहरी मजबूत जातो है व सदैव हरीभरी रहती है। सदनुसार 'अहिंसाधर्म हो सत्यधर्म है, और उसका फल सदेव मीठा हितकर मिलता है। धर्मात्मा जोब जहाँ भो कहीं रहेगा नरक-स्वर्ग-मोक्षमें वहीं वह सुख मवेगा। बाहिरी दुःखके कारण, कोई उसको दुःखी व विचलित नहीं कर सकते, वह वस्तु स्वरूपके विचारमें इतना मग्न । तन्मय ) रहता है कि उसका उपयोग अन्यत्र जाता ही नहीं है...एकाग्र आत्मस्वरूप में ही लीन रहता है, आत्मानुभव करता है-आत्मसुखका स्वाद लेता है इत्यादि उसमें बह विभोर हो जाता है 1 बाहिरके सुखदुःखादिको वह औपाधिक । नैमित्तिक-सयोगज ) व अनित्य मानता-जानता है, अतएव उनकी परवाह यह नहीं करता, उनमें अरुचि रखता है । हों संयोगो पर्यायमें मौजूद होनेसे वह पाप व अधर्मसे बचनेका प्रयत्न व्यवहारनयसे अवश्य करता है। और प्रत्येक प्राणीको करना चाहिये, लेकिन निश्चयसे निर्भय रहना चाहिये । इसीसे हिंसा-हरक