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अहिंसाशुनत
हो भागी मुख्यतया होते हैं, गौणरूपसे साथमें राग या भक्ति के अनुसार कुछ थोड़े नीच जातिके पुण्यकी भो प्राप्ति हो सकती है। इसको पापानुनधी पुण्य कह सकते हैं ऐसा खुलासा समझना तथा हिंसा करके धर्म मानना--पापानुबंधी पाप समझना । अस्तु ।
नोट----इलोक नं० ७९ से श्लोक नं०८९ तक धर्म के विषयमें यही निर्णय समझना कि अन्य मतियोंको धारणा अज्ञानतापूर्ण है, उद्देश्य कुछ भी हो किन्तु क्रिया स्वराम ( साधन खराब ) न हो अर्थात् हिंसामय न हो तभी लाभ कुछ हो सकता है, खोटी क्रियासे चोखे उद्देश्यकी पूर्ति नहीं होती न की जा सकती है ऐसा समझना चाहिये ।
विशेष स्पष्टीकरण जो जीव विषयकषायका 'पापसे लिप्त हैं या युक्त हैं वे स्वयं पापी होते हैं तथा जो जीव उनमें अनुरक्त होते हैं अर्थात् उनमें श्रद्धा रखते एवं उनके भक्त होकर उनका आदरसत्कार ( अतिथि सेवा ) व उन्हें आहारादि देते हैं वे भी पापियोंकी उपासना करने वाले पापी हैं व माने जाते हैं। ऐसी स्थिति में खोटी क्रिया ( साधन ) करके अन्य मूक गरीब असहाय जीवोंको मार करके उन विषयकषाघवान् (पापी) जीवोंको खिलाना, प्रसन्न करना उनको कल्याण करने वाले ( निस्तारक) समझना महामूर्खता ( अज्ञानता ) है कोरा भ्रम है। कारण कि वे स्वयं नहीं तरते ( संसारसे पार नहीं होते ) तब दूसरों भक्तों ) को पत्थरको नायके समान कैसे तार सकते है ? नहीं ना करे, यह उपाय ।।शुकषाको पोषण करनेसे पापानुबंधी हैं, पुण्यानुबंधो नहीं हैं । फलतः कुपात्रों ( मिश्यादष्टियों विषयकषाय-सहितों ) या अपात्रोंको दानादि देने से कोई लाभ नहीं होता उल्टा नुकशान ही होता है ( नारकादि या कुमनुष्य कुदेवादि होना पड़ता है) क्योंकि यह प्रशस्त राग नहीं है-अप्रशस्त राग है ( सुपात्रोंमें न होकर कुपात्रों में है ) इसके सिवाय खोटे साधनों । हिसादि ) से वह सब किया जाता है। जैसे चोरी करके लाये हुए उन्धसे भगनान्को पूजा या सेवा नहीं की जा सकती वह निषिद्ध है। यदि वैसा कार्य पवित्र कायों में भी किया जाने लगे तो लोकमर्यादा ( व्यवस्था) हो सब चौपट हो जाय । क्योंकि चोर 'डाकू अन्यायी, पापकार्य करके भी थोडाबहुत दानपुण्य करके बरी हो जायगे----उन्हें सजा न मिलेगी वे कह देंगे कि हमने ता अन्यायका द्रव्य दान पूजादि अच्छे कार्योमें खर्च कर दिया है तब सजा काहेकी ? इत्यादि सब लोकव्यवहार या लोकके कानून कायदे मिट जावेंगे और आपत्ति आ जायगी तथा परलोकका भय भो जाता रहेगा--अन्धाधुन्ध पाप व अन्याय होने लगेमा, किम्बहुना। १. विषयकषाय खुद पापरूप है और उन सहित जीव पापी है तथा उनमें श्रद्धाभक्ति अनुराग करने वाले
भक्त भी पापी है। प्रतः उनको पुण्यानुबंधी ( पुष्यबंध करने वाले ) मानना कल्पनामात्र है, असल में वे पापानुबंधी है। 'आप डुबन्ते पाड़े ले डूब धजमान' समान हैं । पत्थरकी नाव समाम है, ऐसा समक्षना । थे न स्वयं तरते हैं न भोंको सार सकते हैं । उक्तंच
जदि ते विषयकषाया पावत्ति परूविदा क सस्थेसु । कह ते तपडिक्दा पुरिसा णित्यारगा होति ॥ २५८ ॥ प्रव. सम्.
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HTTEE Maintam se NAWAPUN. MAHARASITRA