________________
महिसाणुनत संशय हो जाता है इत्यादि । इलोकमें जो 'देवता' पद लिखा है, उसका अर्थ 'आत्मा या आत्मदेव है' वह आत्मदेव सदाचारसे, मिथ्यात्व व कषाय छोड़नेसे ही प्रसन्न होता है और तभी बह मोक्षको स्वयं प्राप्त करता है ऐसा सत्य समझना चाहिये मुलावेमें नहीं आना चाहिये । अन्य गगीवेषी देवता नहीं हो सकते । वीतरागी भेदज्ञानी सम्यग्दष्टि हो देवता हो सकते हैं वे ही धर्मके स्वामी हैं अन्य नहीं, अस्तु ।
जो हिंसाको धर्म बताते हैं वह ठीक नहीं है। यथा पूज्यनिमित्तं पाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सस्वसंज्ञपनम् ।।८।।
..........
.
पद्य अतिधिजनोके खातिर हिंसा करादिककी करनेसे । पाप नहीं लगता है किंचित् बन्द न करना शुरनेसे ।। यह विचार है मधमजनोंका जो कुकर्म यह करते हैं ।
इष्ट न जो हो अपने खातिर घे पर नहिं बारसे है। अन्वय अ.....जो कहते हैं कि [ पूज्यनिमितं छागादीनां पाते कोऽपि दोषो नास्ति ] अतिथि ( अभ्यागत-साधु ) आदि आदरणीय पुरुषोंके लिये बकरा आदि पशुओंका घात ( हिंसा ) करने एवं उन्हें खिलाने में कोई दोष ( पार नहीं होता ( लगता ) अपितु धर्म ही होता है इत्यादि । आचार्य इसका खंडन करते हैं कि [ इति संप्रचार्य अनिश्रये सरबसंझपन न कार्य ] उक्त प्रकारको मिथ्या धारणा करके कोई भी समझदार व्यक्ति जीवोंको हिंसा न करे, न करना चाहिये क्योंकि जीवहिसा कभी धर्मरूप नहीं होती, यह नियम है ।। ८१ 11
भावार्थ-मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों में हिंसा करने, मांस खाने-खिलानेका विधान कषाय या स्वार्थ आदिके वश किया गया है क्योंकि वे स्वयं वैसा करते थे। अतः वह मान्य नहीं हो सकता । निःस्वार्थी और स्वार्थी पुरुषोंके उपदेश में बड़ा अन्तर रहता है । स्वार्थी लोग दूसरोंका भला बुरा नहीं देखते । उनका 'बूढा मरे कि जवान हत्यासे काम' यह लक्ष्य रहता है। कहा भी है। 'अर्थी दोषं न पश्यति' । ऐसी स्थिति में उनकी हिंसाको धर्म बत्तानेकी मान्यता ठाक या उचित नहीं कही जा सकतो, अतः बह हेय व खंडनीय है । खानेवालों और खिलानेवालों तथा समर्थन अनुमोदन करनेवालोंको पाप लगता है और उसको सजा अवश्य भोगना पड़ती है चाहे वह कोई भी । १. अतिथि या आदरणीय गुरु आदि । २. बकरा बैल वच्छा आदि । ३. जीवहिंसा (प्राणिबश्व ) । ४. बर्ताव करते, आचरण में लाये ( गुजराती भाषा ) ।
काम
Hemon