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अहिंसा
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न माना जा सकता है क्योंकि उसका फल नरक निगोदादि महान् दुःखोंकी प्राप्ति होना है, स्वर्गादि सुखकी प्राप्ति नहीं होती अर्थात् (विपरीत फल मिलता है। न्यायके अनुसार कारणविपर्ययसे फल ( कार्य ) विषय अवश्य होता है । अस्तु 1 जैनलांग जो धर्मार्थ ( धर्म सावनके लिये ) मंदिर आदि बनवाते हैं रथ चलवाते हैं- संघ निकालते भोज्य ( पंगत देते हैं, उसमें जीव मारनेका उद्देश्य नहीं करते, धर्मप्रचारका ( परोपकारका) उद्देश्य या ख्याल रखते हैं । येसेमें यदि आनुषंगिक रूपसे जीवहिंसा हो जाय तो उसको जिम्मेवारी उनपर नहीं है अथवा निमित्तरूपसे थोड़ी सो जिम्मे वारी यदि आती है तो वह नगण्य है अर्थात् तुच्छ है । यथा 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ दोषाय नालं Lifer fort' अर्थात् समुद्रमें विषको थोड़ीसी बूंद पड़ जाने पर कोई बड़ी हानि नहीं होती, उसी तरह बहुत पुण्यके ढेर ( राशि ) में यदि थोडा पाप भी मिल जाय तो वह आपत्तिकर नहीं हो सकता । ऐसा समझना चाहिये । इस तरह मूल लक्ष्य ( उद्देश्य ) में ही भूल या भेद होनेसे जैन लोगोंकी अन्य लोगोंके साथ 'हिंसा' में या हिसांधमं में समानता नहीं मिल सकती वह खाली बकवास है। इसके सिवाय लोभ आदि कषायों ( विकारों ) का छूटना ही 'धर्म' है क्योंकि उनसे अभ्यन्तर हिंसा अवश्य होती है। उसका समझना जरूरी है। अन्य लोग प्राय: उसको नहीं समझते। यदि किसी के मारने का इरादा धर्मके खातिर या भोज्यादिके खातिर या परोपकार के खातिर हो जाय तो उससे क्या अपराध न होगा ? अवश्य २ होगा । कारण कि वह विकारीभाव ( कषाय ) है । वह चाहे अपने स्वार्थके लिये हो या पर स्वार्थ के लिये हो, देवके लिये हो अपराधों है । चोरी चाहे अपने लिये की जाय या परके लियेकी जाय, देवगुरुके लिये की जाय, उसकी सजा जरूर मिलेगी - क्षमा नहीं की जा सकती, यह ध्यान रखना चाहिये । जो आदमी अपने लिये अग्निको अपने हाथ से उठाता है या दूसरेके लिये उठाता है वह स्वयं जलता है दुःख उठाता है वहाँ लिहाज या छूट नहीं होती, ऐसा ही हिसाके सम्बन्धमें समझना चाहिये । वह चाहे अपने लिये की जाय या अन्य देवता गुरु, आदिके लियेकी जाय उसका फल करने वालेका ही भोगना पड़ेगा छूट कदापि न होगी इत्यादि, क्योंकि व्यापार या क्रिया व कषाय सभी में होती है यह नियम है । जिससे हिंसा अवश्य होना संभव है अस्तु ।
नोट-- ( १ ) पेश्तर श्लोक नं० ५४ में संकल्पी आदि चार प्रकारकी हिंसाओंका व्याख्यान किया गया है सो समझ लेना । ( २ ) कषाय और योग (क्रिया) दोनोंके निमित्तसे हिंसा होती है अत: दोनों त्याज्य हैं फिर उद्देश्य यदि बुरा हो तो कहना ही क्या है समझदारीपूर्वक उसका त्याग ही कर देना चाहिये ।
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धर्मके विषय में विपरीत मान्यता
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अन्य मतावलम्बी भिन्न २ प्रकारसे हिंसाको धर्म मान कर उसकी पुष्टि करते हैं परन्तु वह खंडनीय हैं, मंडनीय नहीं है यह बताया जाता है । यथार्थ में 'अहिंसा' ही धर्मका स्वरूप है वैदिक मत वाले हिंसाको धर्म मानते हैं। यथा--- धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुर्विवेककालितां धिषणां न प्राप्य देहिनी हिंस्याः ||८०||
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