________________
पुरुषार्थसिद्पुपाय उपदेश दे करके अपना स्वार्थ सिद्ध किया करते हैं, उन्हें यह भय नहीं रहता कि इसका क्या नतीजा होगा? स्वार्थान्ध आगा-पीछा नहीं देखते, अतः उनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये, यह सारांशा है। गाड़ी पर जिका भात लागू नहीं होता कि 'मज ( घासविशेष ) को जला देनेपर नया अच्छा मूंज पैदा हो जाता है, वह तो जड़ पदार्थ है उसे क्या सुख-दुःखको खबर है ? कुछ नहीं है, अतः व्यर्थ है ।८।।
आगे धर्मप्राप्तिके विषय में भी कुतर्क उठाकर खण्डन किया जाता है ( धर्मात्माको मार झालनेसे उसे धर्म प्राप्त नहीं होता)
उपलब्धसुगंतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कनीय सुधर्ममभिलपता ॥८७!
ध्यान निमग्न स्थगुरुका अदि कविं शिर उच्छेदन कर देवे । धर्म हितैषी शिष्य वही है जो सुगप्तिको पहुँचा देवे ।। है कुतर्क अरु बहन वह है--शिष्य को गुरुका धास्त करे ।
गुरुसेवाके पहले क्या वह गुरुका शिर उच्छे करे ||८|| अन्वय अर्थ-बादी कहता है कि [ भूयसोऽभ्यासात् उपलवसुगलिसाधनमाश्निसारस्य स्वगुरोः शिरः कनीय ] जिस महात्माको बहुत समयके अभ्यास द्वारा ( प्रभ्यास करते २) सुगति ( स्वर्ग-मोक्ष ) के साधनरूप यम, नियम और समाधिरूप सार चोज प्राप्त हो गई हो, ऐसे अपने उपकारी गुरुका यदि समाधिक समय मरतक काट दिया जाय तो गुरु-शिष्य दोनोंको धर्मको प्राप्ति होती है। इसका खण्डन आचार्य करते हैं कि सुधर्ममभिलषता शिष्येण स्वगुरोः शिरन कसनीय। सुधर्म अर्थात् उत्तम अहिंसाधर्मके अभिलाषी ( इच्छुक ) शिष्यको । विवेकी जीवको ) कभी भी अपने धर्मनिमग्न अर्थात् समाधि ( ध्यान ) में लगे हुए { दत्तचित्त ) गुरुका शिर नहीं काट देना चाहिये, क्योंकि वह हिसा व अधर्म है, उससे मुरु शिष्य दोनोको धर्म प्राप्त नहीं हो सकता--पाप ही लगता है । धर्म अहिंसामय होता है, हिंसामय नहीं होता ॥८७||
भावार्थ-जो शिष्यादि ( भक्तजन ) किसी किस्मकी हिंसा करता है अर्थात् दूसरोंको पीड़ा
१. प्राप्त । २. मुक्ति ३. एकाग्रतारूप ध्यान-चित्तकी स्थिरतारूप उत्तम बीज । ४. बार-बार अभ्यास करनेसे । ५. नहीं काटना । ६. उत्तम अहिंसा धर्म । ।