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पुरुषार्थसिदभुपाय योजनभूत कार्योंको छोड़ देवे या व्यर्थ ही स्थावरोंका विघात न करे तो । जैसे कि व्यर्थ ही न जमीन खोदे, न पानी बहावे, न अग्नि जलावे, न वायु वहावे इत्यादि ! ऐसी हालत में वह कथंचित् ( एकदेश ) व्रती बन सकता है और बनना चाहिये क्योंकि बिना नतके जीवन निष्फल माना गया है यह ध्यान रहे ।। ७७ ।।
आगे आचार्य----अमृत समान अहिंसाधर्मको पालनेवालोंको शिक्षा ( हिदायस ) देते हैं कि दूसरे हिसा आदि जीवोंके धनादिककी विषमता ( विचित्रता ) देखकर कभी असंतुष्ट और लालायित नहीं होना चाहिये । ( मनमें विकार नहीं लाना चाहिये )
अमृतत्वहेतुभूतं परममहिंसारसायणं लब्ध्वा । अवलोक्य बालिशानामसमंजसमाकुलैनं भवितव्यम् ॥ ७८ ।।
पद्य
मोक्षप्राप्ति अरु मुस्त्रका कारण परम अहिंसा है माई । परम रसायन उसको जानो इष्टवस्तु की है दाई॥ यदि कदाचित् हिंसकजमके सुखसमृद्धि विषमता हो।
उसे देख श्रन्दानी का मन कभी न प्रण से विचलित हो । ७८ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [अमृतस्वहेतु मतं परममहिसारसायणं लvar ] मोक्ष प्राप्तिका कारण उत्कृष्ट अहिंसाधर्मरूपी रसायन { चिन्सामाणि को प्राप्त करके अर्थात् अर्शी वती बनकर [बालिशान असमंजसमवलोक्य 1 उसे अन्य किसी हिसक अज्ञानी जोवोंका धनविद्या-बल-प्रभुता आदिको अधिकताको या तन्दुरुस्ती सुन्दरता विशेष हो, तो उसको, देख कर [ आकुन भवितव्यम् ] कभी चित्तको डदांडोल ( अभिलाषारूप ) नहीं करना चाहिये अर्थात श्रद्धाको नहीं बदलना चाहिये, यह अहिंसाधर्मीका मुख्य कर्तव्य है, ऐसी शिक्षा आचार्य महाराज देते हैं ।। ७८॥
भावार्थ--यह है कि जीवोंके परिणाम थोड़ी-थोड़ी बातों में बदल जाते हैं ऐसा देखा जाता है क्योंकि संयोगी पर्यायमें एवं गृहस्थाश्रयमें रहते समय चित्त स्थिर नहीं रहता.....चलायमान हो
१. मोक्षका कारण २. अष्टप्रयोजनकी सिद्धि करने वाली सर्वोषधि चिन्तामणि । ३. अज्ञानी हिंसक । ४. असमानता अधिकता। ५. चांडोल चित्त करना या विचलित परिणाम करना या असंतुष्ट होना या लभयाना। या मोहित चित्त
होगा 1 'मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्ममिति' ।
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