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પઢ
पुरुषार्थसिद्धधुपा
पेश्तर अपने भाव सुधारते हैं (बचाते हैं ) किन्तु जब भाव नहीं सुधरते ( उनपर नियंत्रण नहीं रहता है तब कषायके आवेश में वह अपने भावप्राणोंको घात करता है तथा विवशता में अन्य traint भी दुःखके साथ घात करता है । भीतरसे उसमें अरुचि रखता है | और भरसक ( यथासंभव) उनकी रक्षा ( करुणा दया भी करता है क्योंकि परिणामों के गिरते समय वह पुनः २ संभलता है - शुभ परिणामों को करके समय बिताना चाहता है इत्यादि, नं० २ का कर्तव्य वही है क्योंकि वह अशुभ बहुत अधिक डरता है, उसकी वह मध्यम स्थिति है किम्बहुना | आगे और स्पष्ट किया जायगा, गलत धारणा नहीं करना चाहिये । इस श्लोक हिंसाका निर्णय ( निर्धार ) किया गया है । आगे श्लोक में हिंसाका लक्षण है, अस्तु ।
परिणामवादका खुलासा
स्वार्थवश यदि कोई जीव, किसी जीवको मार डालने का इरादा ( संकल्प ) करता है या किसीसे झूठ बोलनेका इरादा करता है या किसीको चीज चुरानेका इरादा करता है या मैथुन सेवनका इरादा करता है ( ब्रह्मचर्यके घासनेका ) या अधिक परिग्रह के संचय ( संग्रह ) करनेका } इरादा करता है, तो वह नियमसे पांच पापोंका अपराधी हो जाता है उसे सजा मिलती है, चाहे वह परके प्राणघात ( हिंसा ) आदि कार्य कर सके या न कर सके, उससे मतलब नहीं रहता । अथवा वह परजीव दुःखी होगा - उसका फल इसे लगेगा, यह भी नहीं होता, वह न्याय के प्रतिकूल है। हर एक जीवको अपने भावोंका ही फल प्राप्त होता है ऐसा न्याय है । तदनुसार परिणामोंको नहीं बिगाड़ना चाहिये । हाँ, लोकनिन्दा आदिसे बचनेके लिए यथासम्भव, परजीवों की रक्षा आदि कार्य करना भी उचित है। उस समय त्यागी, व्रती अव्रती सभीको शुभरागसे पुण्य का बन्ध होता है, पाप कर्मोंका स्थिति अनुभाग घटता है । सो वह भी अशुद्धोपयोग के समय कथंचित् कर्तव्य है, यह अनेकान्त दृष्टि है, जैनागम या जैनधर्म के अनुकूल है किम्बहुना | किन्तु वह सर्वथा अनुकूल नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । न्यायदृष्टिसे हिंसापापकी तरह झूठ आदि बोलने में भी आत्माका स्वभाव ( शुद्धोपयोग ) घाता जाता है अतएव वे सब हिंसापापके उत्पादक और समर्थक हैं। जीवोंके परिणाम, अशुभ, शुभ, शुद्ध, तीन मरहके होते हैं । उनमें से आत्माका हित करनेवाला एक शुद्ध परिणाम ही है, जो कर्मबन्धसे आत्माको छुड़ाकर मोक्षमें पहुँचा देता है । वह उपादेय है। शेष दो भात्र ( अशुभ व शुभ ) कर्मबन्ध करनेवाले हैं, छुड़ानेवाले नहीं हैं, अतएव
हो है । किन्तु अपेक्षासे शुभभावको अशुभ की अपेक्षा ( पुण्यबन्ध कारक होनेसे ) कुछ अच्छा कहा जाता है, क्योंकि उससे संसार में क्षणिक सुख शान्ति मिलती है इत्यादि, किन्तु वह है हेय हो ॥४२॥ fert लक्षण व हेतु
यत्खलु कषायोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥
१. समुदाय में एक वचन है--वैसे योग और कषाय दो हेतु ( कारण ) हैं ।