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पाँचवाँ अध्याय
आचार्य धर्मका सामान्य स्वरूप ( उत्सर्ग ) और उसका विशेष ( अपवाद ) स्वरूप बतलाते हैं एवं उसके पालनेका आदेश देते हैं
धर्ममहिसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तम् । स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽषि मुश्चन्तु ।।७।।
उपसमधी अहिंसामय है यह सुन जो नहिं कर पाते । प्रेसे प्राणी भी श्रमेक हैं धावरतजी न हो पाने ।। उनके लिये मार्ग है दूजा; 'प्रसहिसा' का याग करें ।
एकदेश या सर्वदेश हिंसाको रयाग 'सुधर्म' धरै ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि ये अहिंसारूपं धर्म संशष्वन्तोऽपि स्थावरहिंसा परित्यक्त महाः ] जो जीव, धर्म का स्वरूप अहिंसामय है 'अहिंसा परमो धर्म:' यह मूलवाश्य है ( सूत्ररूप) जिसका अर्थ यह है कि 'अहिंसा' ही उत्तम धर्म माना गया है । सर्वज्ञदेवने कहा है ) शेष हिसाभयधर्म, धर्म नहीं है किन्तु अधर्म हैं। ऐसे उत्तम धर्म के सच्चे स्वरूप (लक्षण)को सुनकर भी स्थावरकायको हिंसाको नहीं त्याग सकते ( प्रतिदिन वर्तावमें आनेसे ) [ से अपि श्रसहिंसां मुञ्चन्तु ] चे भी श्रसकायको हिंसाका त्याग तो अवश्य करें, अर्थात् उनको श्रसहिंसाका त्याग यथाशक्ति करना ही चाहिये और धर्मधारण करके एकदेश या आंशिक धर्मात्मा (अहिंसा अणुवती) बनना चाहिये ।।७५।।
भावार्थ---निश्चयसे सर्वोत्तम धर्म संसारमें 'अहिंसारूप' है ( पूर्ण वीतरागसारूप है । उसोसे आत्माका कल्याण ( उद्धार होता है, कारण कि वह वीतरागतारूप अहिंसाधर्म, आत्माका स्वभाव है। इसके विपरीत हिंसा या बलि करनेका भाव अधर्म है आत्माका विकारी भाव या विभाव है, अत: उससे आत्माका कल्याण न हुआ है न होना संभव है। अतएव धर्मका सर्वोत्तम स्वरूप अहिंसा ही है, उसी को अपनाना चाहिये। इस विषयमें स्वासकर धर्म का एक अपवाद ( विशेष) रूप भी बतलाया गया है, वह यह कि वास्तबमें सभी जीव एक-सी शक्ति या योग्यतावाले नहीं होते। इसलिये जो व्यक्ति (जीव ) गृहस्थाश्रममें हैं । सरागी परिग्रही हैं । वे इकदम पूर्ण हिंसाका स्याम नहीं कर सकते ( हिंसा अस व स्थावरके भेदसे दो तरहकी होती है ) कारण कि उनके भोष उपभोगके साधन व्यापार आरंभ आदि होनेसे दिनरात्रि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति इन पांच
१. असमर्थाः ।