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सम्यक्रूचारिश्र
( प्रवृत्तिनिवृत्ति रूप से किसी जोनका ! लिए भी हो तो भी वह अहिंसक हो रहता है हिंसाका फल उसे नहीं लगता न भोगना पड़ता है । फलतः व्यवहारहिंसा परजीवके घात होने पर निर्भर है और व्यवहार अहिंसा परजीवके बाल न होने पर निर्भर है तथा निश्चयहिंसा आत्मस्वभाव के घात होने पर निर्भर है और निश्चय अहिंसा आत्मस्वभाव के घात न होने पर निर्भर है। यह व्यवहार और निश्चयमें भेद है। ऐसी स्थिति में व्यवहार हिंसा व अहिंसा साथ फल प्राप्त होनेकी अर्थात् सजा या दंड मिलने की व्याप्ति सिद्ध नहीं होती कि क्रिया होने या करनेका फल मिलता ही है या मिलना चाहिये और क्रिया न होने या करने पर उसका फल नहीं मिलता या नहीं मिलना चाहिये, यह कोई पक्का ( अटल ) नियम नहीं है क्योंकि व्यभिचार ( नियमभंग ) देखने में आता है | परन्तु निश्चयाभासी या व्यवहराभासी एकान्ती मिथ्यादृष्टि पूर्वोक्त सिद्धान्तको नहीं मानते - भूले रहते हैं इसलिये वे संसारके पात्र बने रहते हैं-संसारसे पार नहीं होते, यह भाव है। लोकमें इसका उदाहरण है कि
कोई जीव बाहिरी हिंसा ( जीवघात ) नहीं करता या कारणवश नहीं कर पाता, परन्तु हिंसा करने का भाव ( परिणाम इरादा ) होनेसे उसको हिंसाका दंड ( फल ) अवश्य भोगना पड़ता है, इस लोक या पर लोकमें दुःख भोगना पड़ता है) जैसे विल्ली या धीवरके द्वारा हिंसा ( शिकार ) न होने पर भी उनको खोटे परिणामोंके साथ फलकी व्याप्ति होनेसे दंड अवश्य भोगना पड़ता है । यह श्लोकी पहिली लकीर में व्यभिचार दिखाया गया है कि कोई हिंसा किया नहीं करता तो भी उसका फल भोगना पड़ता है । दुसरी लकीर में हिंसा किया हो जाने पर भी बिना इरादा किसीको उसका फल नहीं भोगना पड़ता यह बताया है। जैसे कि ईर्ष्या समितिले चलनेवाले या मुनिका या भलाई करने के इरादेसे चीड़फाड़ करने वाले डाक्टरको हिंसाका फ नहीं मिलता इत्यादि । जैन शासन में भावोंकी मुख्यता है क्रियाको मुख्यता नहीं, यह सार है ।
बिना भावोंके सुधरे वीतरागता बिना ) क्रियाका सुधारना ठीक नहीं बनता है। यदि कदाचित् जोर-जबर्दस्ती ( बलात्कार ) से शारीरिक क्रियाको थोड़ा सुधार भी ले तो वह चिरस्थायी नहीं रहती । बिगड़ जाती है ) अतएव उससे विशेष लाभ नहीं होता सामान्य लाभ होता है । इसलिये उसको निमित्त कारण समझ कर सर्वथा करनेकी मनाही नहीं है करना चाहिये, किन्तु यह नहीं भूल जाना चाहिये कि यही एक पार लगाने वाली नौका है, किन्तु दूसरी भाव air कुछ नहीं है इत्यादि । क्योंकि जबतक भावचरित्र या भावसंयम ( वीतरागतारूप ) नहीं होगा तबतक संसार नहीं छूट सकता। इसके विपरीत भाव सुधर जाने पर बाह्य क्रियाके सुधार होने में देरी नहीं लगती और वह स्थायी रहती है। ऐसा समझकर निश्चय अहिंसाव्रत धारण सर्वोपरि है 1 योग्यतानुसार कथंचित् दोनों करणीय हैं परन्तु भेद ज्ञानपूर्वक होना चाहिये तथा निश्चय व्यवहारका जानना अनिवार्य है किम्बहुना । इस लोक में दो सरहका फल बतलाया गया है, अस्तु । आचार्य आगे भी परिणामोंको प्रधानता य फल बतलाते हैं। ( परिणामभेद से फलभेव }
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एकस्याल्या हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् ।
अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥ ५२ ॥
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