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পাৰি क्रिया वैसी होती है ) और कमो योगों के अनुसार कषायोंको वृत्ति ( परिणमन हुआ करती है, किन्तु कषायोंके अभाव हो जाने पर, शरीरादिकी क्रियासे कषाय-भावोंका अस्तित्त्व नहीं माना जा सकता, वह शरीरकी पारिणाभिकी क्रिया मानी जाती है, नैमित्तिकी नहीं, यह भाव है। अस्तु । वह सभी वाह्य क्रियाएँ व प्रवृत्तियाँ अरुचिपूर्वक करता है।
व्यवहार दृष्टिवाले, हमेशा मुख्य रूपसे परको ओर हो दृष्टि रखते हैं, अतः परजीवोंकी रक्षा ( दया-करुणा ) करते हैं और अहिंसा के बालक कोनो है स गनाप बयों का त्याग करते हैं और त्यागी मुनि तपस्वी निष्परिग्रही अपनेको समझते हैं। संयमादि पालनेसे याने रसादिकके या भोजनादिके या इन्द्रियोंके विषयों के त्याग देनेसे अपने को संयमी चारिश्रधारी (श्रमणा-समष्टि साध समझते हैं इत्यादि सब बहिर्दष्टि भलभरी दृष्टि है जो अन्त में हेय है क्योंकि वह अन्तष्टि नहीं है या स्वोभमुख दष्टि या शुद्ध बोतरागदष्टि नहीं है, जो 'आत्मानुभव रूप है' बिना उसके समदष्ट, श्रामण्यपना आदि हो नहीं सकता ऐसा तात्पर्य है और बिना उसके संयम व चारित्रवधर्म समभावका होना असंभव है। बस, यही भतार्थ बोध म होनेसे सारा संसार भला हुआ है जो श्लोक ने ५ में कहा गया था। तभी तो व्यवहार धर्म को धर्म, पर जोनके घातको हिसा व अधर्म, बाह्य चीजोंके त्यागनेको वत या त्याग चरित्र आदि मान रहे हैं जिससे कभी कल्याण या उद्धार होने वाला नहीं है । पराधीनता या परका आश्रय लेना कभी हितकारी नहीं हो सकता, जबतक स्वाश्रय या स्वावलंबन न लिया जाय, स्वतन्त्रता प्राप्त न की जाय, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है इत्यादि सारांश है।
अन्त में इस श्लोकके अनुसार हिंसा आदिको समझकर उनका त्याग करना उचित है, तभी धर्म पल सकता है और अधर्म त्यागा जा सकता है सबका सार यही है, इस ग्रन्थका बही उद्देश्य है किम्बहुना ध्यान दिया जाय । संयोगी पर्याय में एकष्टि ( द्रव्य या पर्याय, निश्चय या व्यवहार ) नहीं रहना चाहिए सापेक्षदष्टि या स्याद्वाददृष्टि अवश्य रखना चाहिये जबतक अशुद्ध दृष्टि सत्ता में ( मौजूद ) रहे। पश्चात् जब वह अपने आप शुद्ध हो जाती है सब उसमें सापेक्षता और निरपेक्षता का विकल्प ही नहीं रहता सिर्फ एक ज्ञाता दुष्टि ही रह जाती है, जो पारिणामिक भाव या द्रव्य दृष्टि है, धौव्याप है ।। ६० ।।