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' पुरुषार्थसिद्धयुपाय नुसार अबतक हिसा-हिस्पहिसक-हिसाफल, इन बार बातांका वास्तविक ज्ञान न हो जाय तबतक हिंसा या अधर्मका त्याग करना और अहिंसा या धर्मका ग्रहण करना कैसे बन सकता है, नहीं बन सकता। क्योंकि ज्ञानके बिना क्रिया सब बेकार या व्यर्थ होती है, ऐसा शास्त्रोंमें कहा गया है।
अथवा जूसरा अर्थ..... तत्वेन ] निश्चयनयसे [हिंस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि अवबुध्य ] हिस्थ-हिंसक-हिंसा-हिंसाफल इन चार चीजोंको जानकर [ नित्यमवगृहमान: ] निरन्तर प्रवृत्ति ( उद्यम या पुरुषार्थ ) करनेवाले विवेकी जीव [ निशक्या हिंसा रयताम् ] पद व योग्यताके अनुसार हिंसाका त्याग अवश्य करें या करना चाहिये ।। ६७ ।।
निश्चय और व्यवहारनपसे हिंसादि चार बातोंका निर्धार (क) निश्चयनयसे (१} हिस्य' आत्माका स्वभाव भाव है या ज्ञानदर्शनादि भावप्राण है। उनकी ही हिंसा बचाना अनिवार्य व हितकारी है। तथा (२) हिंसक या घातक विकारीभाव होते हैं ( सगादि विकार जीवके स्वभावको घातते हैं नहीं होने दैते ) तथा (३) हिंसा स्वभावका घात होना है, इसे ही जीवधात या प्राणघास कहते हैं। वह महान् पाप या अपराध है । सथा (४) हिंसाका फल या नतीजा नबोन कर्मोका बन्ध होना और संसारमें रहकर उनका फल भोगता है। यह स्वाश्रित चारों भेद हैं।
(ख) व्यवहारनयकी अपेक्षासे (१हिस्य, एकेन्द्रियादि परजीव माने जाते हैं। (२) हिंसकपरजीव होता है जो दूसरे जीवोंको मार डालता है। जैसे हिस्थ, चहा है और हिंसक बिल्ली है इत्यादि । (३) हिंसा, द्रध्य प्राणोंका घात हो जाना याने शरीर व इन्द्रियोंका वियोग हो जाना है। (४) हिंसाका फल, नरक निगोद आदिको प्राप्त करना, घोर दुःखोंको भोगना है। यह सब पराश्रित कार्य हैं।
ऐसी स्थिति में नयों के शाता पुरुष पेश्तर अपनी ओर दृष्टि रखते हैं---अपना हानि-लाभ देखते हैं और बैसा आचार-विचार करते हैं, जो बुद्धिमानी है। यही निश्चय दुष्टि है जो हमेशा उपादेय है। ऐसे जीव अन्तर्दृशिवाले होते हैं, वे हो संसारसे पार होते हैं। .
अन्तर्दृष्टिका अर्थ-अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टि ) व बोचकी ( मध्यकी ) दृष्टिवाले भी होता है । अर्थात बहिरात्मा और परमात्माके बीचको अवस्थावाले चौथे गुणस्थानसे लेकर १२ने गुणस्थान तकके जोव सविकल्पक होते हैं इत्यादि उन्हें अन्तर्दष्ट कहते हैं ऐसा समझना चाहिये। अतएव उक्त प्रकार के अन्तर्दष्टियाले अन्तरात्मा अपना लक्ष्य संयोगोपीयसे छूटनेका ही रखते हैं बाहरी लक्ष्य नहीं रखते। यदि कदाचित् अमिच्छासे बह हो भी जाय तो उससे उन्हें हर्ष या प्रसन्नता नहीं होती क्रिन्तु दुःख और हेयता ही होती है। वे सोचते हैं कि यद्यपि संयोगोपर्यायमें या कषायके साथ योगोंके रहते समयमें कभी कषायके अनुसार याग हुआ करते हैं (शरीर आदिको
१, एच-हतं ज्ञानं क्रियाहीने, हता चा शानिनां क्रिया।
पाव किलांघको ग्धः, पश्यन्नपि च पंगमः।--राजवासिक अकलंकदेव ।