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सम्यकचारिन । सुन समझकर द्वादशाम शास्त्रको रचना करते है । उत्तरोत्तर गुरु, अन्य आचार्यादिक माने जाते हैं जो उस दिव्यध्वान ( जिनवाणी ) का प्रचार करते हैं। ऐसा क्रम ( गुरुपर्वक्रम } अनादिसे चला आ रहा है इसको समझना अनिवार्य है । अस्तु, अनेकान्तकी सिद्धि नयों के द्वारा ही होती है । वह भी निश्चय और व्यवहार व द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयों के ज्ञान द्वारा होती है अतः नयविवरणका जानना जरूरी है ॥ ५९॥
__ उपसंहार कथन नयचक्रको अच्छी तरह समझनेवालोंका मत है कि हिंसा सर्वथा पाप, अधम एवं हेय (त्याज्य ) है, कभी किसी हालत में वह उपादेय और धर्म नहीं हो सकती, यह आचार्य कहते हैं ।
अवबुध्य हिस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्वेन । नित्यभवगृहमाननिजशक्त्या त्यज्यतां हिसा ॥६॥
जो जीवरक्षक 'धर्म' का सेवक सदा रहता ही ! उसका प्रथम कर्तव्य है कि चारका जानिय घो हो । कौन हिंसा हिस्त्र या है, कौन हिंसक फल जु क्या है ? वक विधिसे चारशाता, अवश ही सब स्यागसा है ॥३०॥ नयाँका जो ज्ञान रखता, भूल वह करता नहीं है।
नहीं जिसको ज्ञान ऐसा, पाप करता नित वही है ॥ अन्यय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ नित्यमबगूहमान: ] हमेशा जीव रक्षा करनेवाले, धर्म ( अहिंसारूप । को पालनेवाल, जाननेवाले पुरुषार्थी जावोंका कर्तव्य है कि वे [ तस्दैन सिधा-हिंसाहिंसा-हिंसाफलानि अवयुध्य ] यथार्थरूपस ( सम्यक् प्रकार ) हिंस्यका या मारने योग्य जीव शिकार) का तथा हिसकका या मारनेवालेका तथा हिमाका या ( जीवधात या प्राणघातका) तथा हिंसाके फलका याहिसा करने से क्या फल या दण्ड मिलता हैया क्याहानिहाता है। इन सब बाताका अवश्य जान लेव.... उन में भूल व प्रमाद न करें, ऐसा करनेसे वह | निजशक्त्या हिंसा त्यज्यताम् ] अपनी शक्ति या योग्यता के अनुसार हिंसा जैसे पाप या अधर्मको अवश्य ही स्याम दंगे अथवा जावकारको उसे अवश्य हय जानकर त्याग देना चाहिये ।। ६० ॥
भावार्थ----बिना जाने किसोका त्याग करना या ग्रहण करना व्यर्थ माना जाता है। तक
१. अहिंसा २. हिंसा आदि चार चीजोंका । ३. जानकार या शाता ।