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पुरुषार्थसिद्धपुपाय और कषायोंका नियंत्रण है, जो इन्द्रियसंयममें शामिल है। संयमी जीव हो सफल माना जाता है किम्बहुना। आगे पाँच फलोंके सम्बन्ध तर्क और उसका समाधान किया जाता है।
(किसी भी रूपमें ये भक्ष्य नहीं हैं ) यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥७३॥
सूखे पाँच उदम्बरफलके खाने में हिंसा होसी । काल बीत जाने पर उनमें पुनः जीवराशि होती ॥
और ती चिके कारण हा भावरूप हिंसा होती ।
दोमो हिसाओंके कारणचफसी न भक्ष्य होता ॥७३॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि यह तर्क या आशंका नहीं करना चाहिये कि जो पाँच उदम्बरफल बहुत समयके सूखे हैं, उनके खाने में हिंसा नहीं होती। किन्तु | यानि पुनः कालोधिछन्नअस्मणि भवेयुः ] जो फल बहुत समय तक सूखने के बाद अराजीव रहित हो जाते हैं [ तान्यपि मनसः विशिष्ट रागादिरूपा हिंसा स्यात ] उनके खाने में भी अत्यन्त राग होनेसे भावहिंसा अवश्य ( अनिवार्य ) होती है तथा प्रति समय योनिभूत होनेसे उनमें नये २ जीब उत्पन्न होते रहते हैं उनका बात होने से द्रयहिंसा भी हुए बिना नहीं रहती अतः वे सर्वथा वर्जनीय हैं ।।७३।।
भावार्थ-पूर्ण अहिंसक, तभी कोई जीव होता है जब कि वह द्रव्य और भाव दोनों तरहको हिंसाओंका त्याग कर देखें, लेकिन दोनों तरहकी हिसाओंका त्याग करना सरल नहीं है कठिन है । जबतक जीव संयोगी पर्याय में रहता है तबतक एक-न-एक हिंसा होती रहती है क्योंकि प्रवृत्तिमार्गम ( आरंभ दशामें ) प्रायः सभी कार्य करने पड़ते हैं। जैसे स्वाना-कमाना-चलना-फिरना व्यवस्था करना-करवाना आदि २, उन सबमें लोकमें व्याप्त ( भरे हुए) सूक्ष्म व स्थूल जीवोंकी हिंसा {प्राणघास ) होती ही है 1 तथा कपायोंके अनुसार कभी अन्य जीवोंक मारने का इरादा भी होता है और कभी नहीं होता। इसी तरह दुःस्व देने व सुख देनेका भी इरादा होता है और तदनुसार शारीरिक वाचनिक क्रिया भी जोब करते हैं। तदनुसार उनको पापपुण्यका बंध होने से उदयके समय दुःखसुख भोगने में आते हैं । तरह २ की दशाएं भोगनी पड़ती हैं । अतएव बुद्धिपूर्वक योग्यतानुसार द्रव्याहिंसा व भावहिंसाका त्याग करना ही चाहिये अर्थात् अधिक न राग द्वेष करना चाहिये न अनापसनाप ( यद्वातद्वा ) व्यर्थ ( निष्प्रयोजन ) प्रवृत्ति था आरंभ ही करना चाहिये तभी कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं । विषय-कषायोंको घटाना व हटाना विवेकीका कर्तव्य है । तब स्वार्थवश तरह २ के विकल्प व तर्क करना अनुचित है किम्बहुना ।
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