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धर्मप्राप्तिको भूमिका घर - जिस पकिराको एक क हनेवाले छोटे असंख्याते जीव अदि परेवाके बराबर हाकर उड़ें तो तीन लोकमें न समावें इतनी बड़ी संख्या ( राशि ) उनकी है, उसके पोनेवाले उन सबका घात कर देते हैं। अतएव उस असंख्यात जीवोंके आधार ( योनि ) भूत मदिराको, जो दोनों लोकों अर्थात् इसभव-परभव या पर्यायोंको बिगाड़ देता है, अवश्य ही त्याग देना चाहिये । उसका छूना भी वर्जनीय है फिर सेवन करने को तो बात ही क्या है ? वह वस्तु हमेशा वर्जनीय है इसीलिये अष्टमूलगुणोंमें उसको प्रथम स्थान दिया गया है किम्बहुना । मदिरा पीनेवालेका मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है अतः वह कभी आत्मघात भी कर बैठता है और बेकाबू हो जाता है।
विशेषार्थ----यद्यपि संयोगोपर्यायमें जीव मदिरादि या अन्नादि परद्रव्यका सेवन करता है जो उपचारमा व्यवहारका कथन है। असल में निश्चयसे देखा जाय तो जीव चेतनद्रव्य है, उसकी खुराक जड़ मदिरा, अन्न आदि परद्रव्य नहीं हो सकती किन्तु जीवको खुराक उसका स्वभाव है, जिससे वह हमेशा जीता रहता है। हो, उस जीयका ज्ञानगण सयामीपायमपराधीन या शन्द्रया धीन है और इन्द्रियाएँ जड पदमलिक हैं। सो जब उनके साथ जब मदिरा आदिका संयोग होत है तब उनमें विकार उत्पन्न होता है, जिससे उनको सहायतासे होने वाला ज्ञान भी विकृत ( अन्यथा ) हो जता है, तब ज्यों-का-त्यों ( सही ) वह नहीं जानता--भूल जाता है। अतएव उस मदिरा आदि विकृत परद्रव्यका भी संयोग सम्बन्ध छोड़ने का उपदेश दिया जाता है, क्योंकि वह निमित्त कारण है, उससे परिणामों में विकार होता है-रागादिक कषायभाव प्रकट होने में मदद मिलती है, जिससे उस जीवको । मद्यपायोको ) स्वयं हिंसा होती है, स्वभाव भावोंका भात होता * तथा मयादिमें रहने वाले अनन्त जीवोंकी हिंसा होती है अतएव दोनों हिंसाओं ( भाव व द्रव्य )
ने के लिये मद्यादिका छोड़ना जरूरी है ऐसा खुलासा समझना चाहिये अस्तु, तभी धर्मका हो सकता है अर्थात् हिंसाके छूटनेसे न 'अहिंसा' के होनेसे ही धर्मात्मा बन सकता है ६४ ।।
२. मांसके खाने ( भक्षण करने } से भी हिंसा होती है यह बताते हैं न विना प्राणविघातात् मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥
जीपश्चातके विना न होती मांग वस्तु की उत्पती । अतः मौसके खानेवाकोसे हिंसा वरवस होती ।।
१. उत्पन्न होती है। २. अनिवार्य-चरचस, अवश्यंभावी ।
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