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অমাষি মুমিকা
२०५ हिसारूप ) द्रव्यहिंसा बहुधा नहीं होती, भावहिंसापूर्वक द्रव्यहिंसा होती है यह नियम है। उसको ही संकल्पी द्रव्याहिंसा कहा जाता है । तथा खानेका राम होना व खाकर रागका होना सभी भावहिसा रूप है अस्तु ।। ६७ ॥
अन्तिम निष्कर्ष आमा वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा "पिशितपेशी । स निहन्ति सततनिचितं पिंडं "बहुजीवकोटीनाम् ॥ ६८ ।।
पद्य गीकी सूत्री अधसूखी भी मांस सी जी होती है। उसमें जीवराशि बहु होती खानेसे यह मरती है । पाप प्रला हिंसासे होता.धर्म अहिंसाले . होता।
इसना नहीं चिक जिसे है. अम्म असारथ यह खोला । ६४ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [य: भामां या पक्षो का विशिसपेशी खादति का स्पृशति । जो जीव गोले या सूखे मांसकी डली (टुकड़ा) को भी खाता है या छूता भी है [ स बहुजीयकोटीमा सतप्सन्निचित विं निहन्ति ] वह बहुत कालसे संचित हुए { एकत्रित ) अनंते जीवोंके पिंड (समुदाय-राशि) को नष्ट कर देता है अर्थात् उनकी हिंसा कर देता है, यह पाप उसे लगता है। अतएव उसका त्याग ही विवेकी जीवोंको कर देना चाहिये अन्यथा उनकी जिन्दगी बेकार समझना चाहिये, यह तात्पर्य है ।। ६८ ।।
भावार्थ----हिसापापके बराबर कोई अधर्म नहीं है और अहिंसाके बराबर कोई धर्म नहीं है। इतना विवेक जिस मनुष्यको न हो वह मनुष्य नहीं है पशुके समान है या नरपशु है, और उसकी जिन्दगी बेकार है। ऐसी स्थिति में हिंसाका आरंभ ( कार्य ) बहुधा छोड़ हो देना चाहिये । यदि यह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता हो अर्थात् कारोबारी या उद्योगी-गृहस्थ व्यवसायी हो तो उसे भी शनै: ( थोड़ा २) त्याग करना ही चाहिये यह कम है क्योंकि बिना पापारंभके त्यागे उद्धार नहीं हो सकता । खानेके सम्बन्धसे साक्षात् मास था अंडे वगैरहका त्याग तो आरंभी गृहस्थके भी होना चाहिये । वह तो मनुष्यका आहार है ही नहीं-यह प्रकृति विरुद्ध है किम्बहुना ॥ १८ ॥
२. मांसकी डली-टुकड़ा । ३. चिरकालके संचित । ४. करोड़ों अनन्ते जीवोंका समुदाय मांस है। ५. व्यर्थ-निष्फल।